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________________ - १३६ ] पञ्चमः परिच्छेदः गुणसंश्लिष्ट शब्दौघसंदर्भो रीतिरिष्यते । त्रिविधा सेति वैदर्भी गोडी पाञ्चालिका तथा ॥१३४॥ मुक्तसंदर्भ पारुष्यानतिदीर्घ समासिका । उज्झिता कठिनैः शब्देवैदर्भी भणिता यथा ॥ १३५ ॥ । प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोक स्थिति: प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः । प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया ब्रूयाद्धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमृष्टाक्षरः ॥१३६॥ ओजः कान्तिगुणा पूर्णा या सा गौडी मता यथा । श्रीमन्नम्रसुरासुराधिपचलन्मौलिप्रभास्वन्मणिश्रेणी श्राणितसंततार्घ्यविभवो यत्पादपीठीतटः । २५९ रीतिका स्वरूप और उसके भेद गुणसहित सुगठित शब्दावलियुक्त सन्दर्भको रीति कहते हैं । रीतिका अर्थ विशिष्ट लेखन पद्धति है । संस्कृतके अन्य आचार्योंने भी विशिष्ट पद-रचनाको रीति कहा है । यह विशिष्टता गुणोंपर आधारित है । वस्तुतः रीति वह रचना पद्धति है जिसका सम्बन्ध समास से है । रोतिके तीन भेद हैं- ( १ ) वैदर्भी ( २ ) गोडी ( ३ ) पाञ्चाली ॥१३४॥ वैदर्भी रीति -- सन्दर्भके पारुष्य — काठिन्यसे रहित छोटे-छोटे समासवाली तथा कर्कश शब्दावलिसे रहित रीतिको वैदर्भी रीति कहते हैं ।। १३५ ॥ यथा जो त्रिकालवर्ती पदार्थोंको विषय करनेवाली प्रज्ञासे सहित है, समस्त शास्त्रोंको जान चुका है, लोक व्यवहारसे परिचित हैं, अर्थलाभ, पूजा, प्रतिष्ठा आदिकी इच्छासे रहित है, नवीन-नवीन कल्पनाकी शक्तिरूप अथवा शीघ्र उत्तर देने की योग्यतारूप उत्कृष्ट प्रतिभासे सम्पन्न है, शान्त है, प्रश्न करनेके पूर्व ही वैसे प्रश्नके उपस्थित होने की सम्भावनासे उसके उत्तरको देख चुका है, प्रायः अनेक प्रकार के प्रश्नों के उपस्थित होनेपर उनको सहन करनेवाला अर्थात् न तो उनसे घबड़ाता और न उत्तेजित हो होता है, श्रोताओं के ऊपर प्रभाव डालनेवाला है, उनके मनको आकर्षित करने वाला है अथवा उनके मनोगत भावोंको जाननेवाला है तथा उत्तमोत्तम अनेक गुणोंका स्थानभूत है ऐसा संघका स्वामी आचार्य दूसरोंकी निन्दा न करके स्पष्ट एवं मधुर शब्दों में उपदेश देनेका अधिकारी होता है ॥१३६॥ गौडी रीति और उसका उदाहरण- जो ओज गुण और कान्तिगुणोंसे परिपूर्ण हो उसे गोडीरीति कहते हैं । यथा-लक्ष्मीयुक्त, विनम्र देव तथा दानवोंके अधिपतियोंके चञ्चल मुकुटोंमें जटित चमकती हुई मणियोंकी श्रेणी से जिसका पादपीठ निरन्तर अर्घ देने से भास्वर सम्पत्तिवाला For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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