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________________ २४३ पञ्चमः परिच्छेदः आदरप्रेक्षणं यत्र चक्षुः प्रोतिर्यथा पुनः। सक्तिर्मुहुर्मुहुश्चिन्ता प्रतिकृत्यादिभिर्यथा ॥६५॥ अधरस्तननाभ्यन्तश्रेणीचरणवीक्षणैः । परावृत्तेक्षितैश्चक्रे सा तस्य स्मरदीपनम् ॥६६॥ त्वद्रूपसाम्यमनसा करिसत्करौ च मेरोः प्रवाहशिखरे शशिनं च पद्मम् । मेरुं नितम्बसुभगं विलिलेख कान्ता त्वां लज्जिता मम पुरो विलिखन्त्यपीयम् ॥६७॥ वाञ्छा शुभप्रियावाप्ती संकल्पो भणितो यथा। निद्राक्षयः प्रियालाभादनिशं जागरो यथा ।।६८॥ तावारुढो च दुर्मोचप्रेमबन्धी मनोरथम् । दुर्लभाश्लेषसंभोगफललाभार्थमथिनौ ॥६९॥ चक्षुप्रीति और आसक्ति-जहाँ नायक-नायिका परस्पर एक दूसरेको अत्यन्त आदरपूर्वक देखें उसे चक्षुःप्रीति कहते हैं । प्रतिकृति-चित्र इत्यादिके द्वारा नायकके रूप-लावण्यको देखकर बार-बार उससे सम्बद्ध चिन्ताको आसक्ति कहते हैं ॥६॥ यथा उसने धूमकर अवलोकन, अधर, स्तन, नाभिका भीतरी भाग, कमर, चरण, इत्यादिके दर्शनसे उसके हृदयमें कामवासनाकी प्रवृद्धि की ॥६६॥ । __ कोई सखी या दूती किसी नायकसे नायिकाका वर्णन करती हुई कह रही है कि तुम्हारी कान्ताने तुम्हारे रूपको समताको इच्छासे सुन्दर हाथीकी सूड़के समान दो बाहुओंको मेरुके प्रवाह शिखरपर स्थित चन्द्रमा और कमलको नितम्ब भागसे अत्यन्त शोभित होनेवाले मेरु पर्वतका चित्र बनाया। इस प्रकार मेरे समक्ष सुमेरुके व्याजसे तुम्हारा चित्र बनाती हुई वह लज्जित हो गयी ॥६७॥ संकल्प और जागरण-सुन्दर प्रिया या प्रियतम द्वारा परस्पर एक दूसरेकी प्राप्तिकी इच्छाको संकल्प कहते हैं तथा प्रिया-प्रियतमकी परस्पर प्राप्ति न होनेके कारण रात-दिन निद्राके न आनेका नाम जागरण है ॥६८॥ यथा अलभ्य आलिंगन और संभोग रूपो फलके चाहने तथा अत्याज्य प्रीति बन्धनवाले वे दोनों अपनी मनोभिलाषाको पूर्ति के लिए आग्रही हैं ॥६९॥ २. पद्मो-ख। ३. कान्ता स्थाने-खप्रतौ 'तान्तो'. पाठः । १. यदा मन:-क। ४. लाभत्व-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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