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________________ -६२] पञ्चमः परिच्छेदः २४१ 'कालासहनमौत्सुक्यं चेतस्तापत्वरादिकृत् । विनीता नगरोनार्यो विभूष्य कृतसंभ्रमाः। विलम्बितं सहन्ते स्म कृच्छ्रेण निधिपागमे ।।६।। उपायापायचिन्ताभिविषादो भञ्जनं हृदः। प्रेषितं चित्तमाह्वातु लग्नं तत्रैव चक्रिणि । न स्मरो याति मां मुक्त्वा कर्तव्यं किं नु भोः सखि ॥६१॥ द्वेषरागादिसंभूताचापल्यं त्वनवस्थता।। विलोक्य चक्रिणं कान्ता लोलदृमृदुहासिनी। काञ्चीव्यावर्तिनी कर्णपत्रसंस्पशिनो स्थिता ॥१२॥ सात्त्विका व्यभिचारिणश्चानेकरससाधारणत्वेन सामान्यापेक्षयोदाहृताः। तत्र विशेषः कथ्यते। शृङ्गारे ते सर्वे संभवन्ति । हास्येऽवहित्थाग्लानिश्रमचापल्यहर्षाः। करुणे हर्षमदगर्वधृतिवीडोग्रतोत्सुक्यरहिताः शेषाः। रौद्रे औत्सुक्य-अभीष्टको प्राप्तिमें विलम्बके असहनको औत्सुक्य कहते हैं। इसमें चित्तसन्ताप, आतुरता, शोघ्रता इत्यादि होते हैं। यथा-अपनेको विभूषित कर आकुलता सहित विनम्र नगर-नारियां चक्रवर्ती भरतके आगमनके विलम्बको कठिनाईसे सहन करती थीं ॥६॥ विषाद--इष्टप्राप्ति या अनिष्ट-निवारण में उपायाभावकी चिन्ता आदिके रहने के कारण हृदयका टूट जाना अर्थात् उत्साहहीनताको विषाद कहते हैं। यथा-कोई नायिका कह रही है कि प्रियतम चक्रोको बुलानेके लिए अपने चित्तको भेजा, किन्तु वह वहीं जाकर चक्रवर्ती भरतमें रम गया और यहाँ काम मुझे छोड़कर अन्यत्र जा नहीं रहा है । हे सखि ! अब मुझे क्या करना चाहिए ॥६१॥ चापल्य-मत्सर, द्वेष, राग आदिके कारण चित्तकी अनवस्थिति-अस्थिरताको चापल्य कहते हैं । यथा-चक्रवर्ती भरतको देखकर चंचल नयनवाली और कोमल हास्यसे युक्त कोई कामिनी अपनी करधनीको इधर-उधर घुमाने तथा कर्ण-आभूषण आदिका स्पर्श करने के कारण उनके सामने बहुत देरतक स्थित रह गयो ॥६२॥ सात्त्विक और व्यभिचारी भावोंके सम्बन्धमें विशेष कथन-सात्त्विक और व्यभिचारी भाव अनेक रसोंमें साधारणतया रहते हैं, अतएव सामान्यापेक्षया उनका सोदाहरण निरूपण किया गया है, अब उनमें विशेषता बतलायो जाती है श्रृंगार रसमें सभी सात्त्विक और व्यभिचारी भाव रह सकते हैं। हास्य रस में अवहित्था, ग्लानि, श्रम, चापल्य और हर्ष पाये जाते हैं । करुण रसमें हर्ष, मद, गर्व, धृति, बीड़ा, उग्रता एवं औत्सुक्यके अतिरिक्त सभी पाये जाते हैं। रोदरसमें शंका, १. वेलासहन-ख । २. त्वनवस्थिता-ख । ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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