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________________ २२५ -३ ] पञ्चमः परिच्छेदः रतिहासशुचः क्रोधोत्साहौ भयजुगुप्सने । विस्मयः शम इत्युक्ताः स्थायिभावा नव क्रमात् ॥३॥ संभोगगोचरो वाञ्छाविशेषो रतिः। विकारदर्शनादिजन्यो मनोरथो हासः। स्वस्येष्टजनवियोगादिना स्वस्मिन् दुःखोत्कर्षः शोकः । 'रिपुकृताप भाव भी एक प्रकारका संवेदन ही है, पर इस संवेदन में दार्शनिक दृष्टिसे मोहनीय कर्मका उदय अपेक्षित है । फलितार्थ यह है कि जैनदर्शन में मोहनीय कर्मके उदय होनेपर इन्द्रियजन्य ज्ञान या संवेदन भावके रूप में परिणत होता है और इसी भावसे रसकी अभिव्यक्ति होती है। हमारा अपना मत है कि संवेदनाओंके गुणका नाम भाव है। जिस प्रकार प्रत्येक संवेदनमें मन्दता या तीव्रताका गुण रहता है, उसी प्रकार मोहनीय कर्मके सद्भाव के कारण संवेदनमें सुखमय या दुःखमय होनेका भी गुण रहता है। इसी गुणके कारण संवेदनाएँ भावात्मक रूप ग्रहण करती हैं। कविका मनोराज्य कल्पनाके ही संसारसे सम्बन्ध रखता है । अतएव कल्पनाओंका मूलाधार संवेदनाएं ही हैं। संवेदनाओंके समान भावोंका कोई स्थान नहीं है। प्रत्येक संवेदन किसी-नकिसी इन्द्रियसे सम्बन्ध रखता है और जब यह संवेदन मोहनीय कर्मके कारण हर्ष या विषादसे जुड़ जाता है तो भावका रूप ग्रहण कर लेता है। भाव विषयोसे सम्बन्ध रखते हैं और संवेदन विषयसे । भावोंका उदय या अस्त किसी बाह्य पदार्थको उपस्थिति या अनुपस्थितिपर निर्भर नहीं रहता, पर संवेदन सदा किसी अन्य पदार्थको अपेक्षा रखता है। अतः स्पष्ट है कि संवेदनके उत्तरकालमें ही भाव उत्पन्न होते हैं। स्थायीभाव चित्तकी वह अवस्था है, जो परिवर्तन होनेवाली अवस्थाओं में एक-सी रहती हुई उन अवस्थाओंसे आच्छादित नहीं हो जाती, बल्कि उनसे पुष्ट होती रहती है । मुख्य भाव स्थायीभाव कहा जाता है। अन्य भाव स्थायीभावके सहायक एवं वर्द्धक होते हैं। साहित्यदर्पणकारने भी स्थायीभावकी व्याख्या करते हुए बताया है कि जो भाव अपने में अन्य भावोंको मिला ले और उनसे पराजित न हो वह स्थायीभाव है। स्थायीमाव के भेद - रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय और शम ये नौ प्रकारके स्थायीभाव होते हैं ॥३॥ स्थायीभावोंका स्वरूप संभोग-विषयक इच्छाविशेषको रति कहते हैं । विकृत वस्तुओंके दर्शन आदिसे उत्पन्न मनोरथको हास कहते हैं। स्वइष्टजनके वियोग आदिसे अपने में उत्पन्न १. रिपुकृतापकारेण चेतसि-क-ख । २. 'साहित्यदर्पण', चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-१, सन् १९५७, ३।१। २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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