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________________ २४ अलंकारचिन्तामणि सम्बन्धी सिद्धान्तको उत्पत्तिवाद माना है । संवेदनों के संयोग से स्थायी भाव और स्थायी भावोंसे रसकी उत्पत्ति होती है । संवेदनों के अन्तर्गत ही विभाव भी आते हैं । कटाक्ष आदि अनुभाव भावको प्रतीतियोग्य बनाते हैं । रसके स्वरूपनिर्धारणके पश्चात् विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावोंकी परिभाषाएँ अंकित की गयी हैं । भाव ज्ञान और क्रियाके बीचकी स्थिति है । यह एक प्रकारका विकार है । कोई विकार स्वयं उत्पन्न नहीं होता और न सहज में उसका नाश होता है । एक विकार दूसरे विकारोंको उत्पन्न करता है । जो व्यक्ति पदार्थ बाह्यपरिवर्तन या विकार मानसिक भावोंको उत्पन्न करते हैं, उनको विभाव कहते हैं । और जो शारीरिक विकार क्रियाके प्रारम्भिक रूप होते हैं वे अनुभाव कहलाते हैं । स्थायीभाव, संचारी भाव, विभाव और अनुभाव ये चारों ही रस के अंग हैं । इस सन्दर्भ में सात्त्विक भावोंका स्वरूप, उनके भेद एवं परिभाषाएँ प्रतिपादित की गयी हैं । संचारी भावों के अन्य अलंकारशास्त्रियोंके समान तैंतीस भेद बतलाये तथा इन भेदोंका उदाहरण सहित लक्षण भी निरूपित किया है । तदनन्तर शृंगाररसको अंकुरित और पल्लवित करने वाली कामजन्य दस अवस्थाओं का निरूपण किया गया है । इस सन्दर्भ में रसके नौ प्रधान भेदोंका उपभेदों सहित सोदाहरण कथन किया है। श्रृंगार, हास्य, करुण आदि रसोंकी सामग्रीका भी कथन आया है । आचार्य अजितसेनने रसोंके वर्ण, देवता, पारस्परिक विरोधी रस, आदिका विचार किया है । एक सौ चौंतीसवें पद्यसे एक सौ तैंतालीसवें पद्य तक रीतियों एवं काव्य- पाकोंका वर्णन आया है । गुणसहित, सुगठित, शब्दावलीयुक्त सन्दर्भ को रीति कहा है। रीतिका अर्थ विशिष्ट लेखन पद्धति है । अजितसेनने इसका सम्बन्ध समासके साथ माना है। रीतिके तीन भेद हैं- १. वैदर्भी, २. गौडी और ३. पांचाली । वैदर्भी रीति - सन्दर्भके पारुष्य काठिन्यसे रहित छोटे-छोटे समास वाली तथा कर्कश शब्दावली से रहित होती है । इस रीतिमें सभी गुण और रसोंका समावेश पाया जाता है । ओजोगुण और कान्तिगुणोंसे परिपूर्ण वैदर्भी रीति होती है । समस्त पाँच-छह पद वाली ओजः - कान्ति-सौकुमार्य, माधुर्य गुणयुक्त पांचाली रीति होती है । सम्पूर्ण रीतियोंसे मिश्रित, कोमल समाससे युक्त, अधिक संयुक्त अक्षरोंसे रहित, अत्यन्त स्वल्प घोष अक्षर वाली लाटी रीति होती है । शय्या और पाकका निरूपण एक सौ उन्तालीसवें पद्यसे एक सौ तैंतालीसवें पद्य तक किया गया है। पदोंके अनुगुण रूप वाली मैत्रीको शय्या और अर्थों की गम्भीरताको पाक कहते हैं। पाक दो प्रकारका होता है, द्राक्षापाक और नारिकेलपाक । बाहर और भीतर दृश्यमानरस वाले पाक को द्राक्षापाक और केवल भीतर छिपे हुए रस वाले पाक को नारिकेल पाक कहते हैं । इन पाकोंके उदाहरण भी आये हैं । तदनन्तर काव्य - सामग्रीका निरूपण किया गया है । इस सामग्री में रस, गुण, अलंकार, पाक, रीति आदिका कथन आया है । अर्थनिरूपणके पूर्व वचनका महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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