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________________ अलंकार चिन्तामणिः पृच्छामीति कथनसामान्यप्रतिज्ञया विशेषकथनेनिषेधाभासनादुत्तमधर्मप्रणयनेन पवित्रीकरणीयोऽहमित्यादिविशेषो गम्यते । त्वामाश्रिता वयं देव त्रिलोकीपालनक्षमम् । आदिब्रह्मन् किमुक्तेन बहुना कण्ठशोषिणा || २५१ ॥ त्वामाश्रिता इति अंशक्तौ बहुनोक्त ेन किमिति अंशान्तरनिषेधाभासादभ्युदयनिःश्रेयसफल प्रदानेन रक्षणीया वयमिति भव्यार्थित्वविशेष आक्षिप्यते । " तुल्यार्थतया अनिष्टविध्याभासोऽप्याक्षेप इष्टः । निषेधस्यानुपपद्यमानत्वेना १९४ ५ भासत्वं यथा तथा । चक्रिशासन वैमुख्यं चेत्करोषि कुरु प्रिय । महाग्निकुण्डसंपात प्रकारोऽभ्यस्यते मया ॥ २५२॥ पूछता हूँ, इस तरहका कथन सामान्यकी प्रतिज्ञा करके विशेष कथन के निषेधका आभास होनेके कारण में उत्तम धर्मके प्रणयनसे पवित्र करने योग्य हूँ, इस प्रकारका विशेष कथन आक्षिप्त होता है । [ ४२५१ चतुर्थाक्षेपालंकारका उदाहरण तीनों लोकोंके पालन करनेमें समर्थ हे देव, हम आपकी शरण में हैं । हे आदिब्रह्मन् ! कण्ठको अधिक सुखानेवाले वचन कहने से क्या लाभ है || २५१ ॥ तुम्हारी शरण में हैं, इस एक भागके कहनेपर अधिक कहने से क्या इस अन्य भागके कथन के निषेध का आभास होता है । अतः अभ्युदय तथा मुक्तिरूपी फलके दानसे हम लोग रक्षा करने योग्य हैं, इस प्रकार भव्य याचक विशेषका आक्षेप होता है । तुल्यार्थक होनेसे अनिष्ट विधिके आभासका भी आक्षेप होता है । निषेधकी अनुपपद्य मानता होनेसे आभास होता है । अन्य उदाहरण हे प्रियतम ! यदि तुम भरत चक्रवर्तीके शासन से विमुख होना चाहते हो, तो हो जाओ, पर मुझे अत्यन्त प्रज्वलित अग्निकुण्डमें कूदनेका अभ्यास करना पड़ रहा है अर्थात् चक्री के आदेशको ठुकरानेसे तुम मारे जाओगे और मुझे प्रज्वलित अग्निकुण्ड में कूदना पड़ेगा ।। २५२ ॥ १. निषेधाभास - । २. तुल्यार्थितया - ख । ३. अनिष्टविद्याभ्यासो - ख । ४ निषेध.... इत् पूर्वं कख । इष्टपदमधिकं वर्तते । ५ तथा इत्यस्यानन्तरम् तथानिष्टविधेरनु पपद्यमानत्वेन आभासत्वं यथा - क ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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