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________________ प्रस्तावना इन साधारण धर्मों के अतिरिक्त अन्य धर्म भी उपलब्ध रहते हैं। इस प्रकार सादृश्यमें वस्तुओंका एक सामूहिक अथवा विस्तृत चित्र पाया जाता है। जब हम दो वस्तुओंका अवलोकन करते हैं, तब सर्वप्रथम कोई साधारण धर्म हमें उन वस्तुओंमें दृष्टिगोचर होता है। हम देखते हैं कि प्रथम वस्तुमें यह धर्म है तथा द्वितीयमें भी यह धर्म है । यह साधर्म्यका चित्र हुआ। इसके अनन्तर उस धर्मसे युक्त दोनों वस्तुओंका सामूहिक अथवा विस्तृत चित्र हमारे समक्ष आता है। इस स्थितिमें उस धर्मका पृथक् ज्ञान नहीं होता अपितु वस्तुके अन्य गुणोंके साथ मिश्रित रहता है। इन मिश्रित चित्रोंमें हमें सादृश्य दिखलाई पड़ता है । इस प्रकार अजितसेनने साधर्म्यको सादृश्यका कारण माना है। पर साधर्म्य ज्ञानकी स्थिति सादृश्य ज्ञानकी स्थितिसे भिन्न स्वीकार की है। अनेक अलंकारोंमें सादृश्य वाच्य न होकर व्यंग्य रहता है। यदि सादृश्यको साधर्म्यसे भिन्न न माना जाये तो साधारण धर्मके उपादानकी स्थितिमें इन अलंकारोंके सादृश्यका व्यंग्यत्व असमीचीन सिद्ध हो जायेगा। रूपकादि अलंकारोंमें अनेक बार साधारण धर्मका तो निर्देश होता है, परन्तु सादृश्य फिर भी व्यंग्य माना जाता है। यह सादृश्य और साधर्म्यको एक माननेकी स्थितिमें सम्भव नहीं है। यतः जहाँ साधारण धर्मका निर्देश होगा वहाँ साधर्म्य वाच्य होगा और यदि सादृश्य तथा साधर्म्यको एक माना जाये तो सादृश्य भी वहाँ वाच्य हो जायेगा । अजितसेनने साधर्म्यके तीन भेद बतलाये हैं१. भेदप्रधान २. अभेदप्रधान और ३. भेदाभेदोभयप्रधान । इन्होंने सादृश्य और साधर्म्यमें तात्त्विक भेद स्वीकर किया है। सादृश्यनिषेध, अपह्नव, अतिशय, कार्यकारण भाव आदिके द्वारा आता है। यह वाच्य या गम्य माना जा सकता है । दो वस्तुओंका सादृश्य जब भेद और अभेद दोनोंको समान बनाये रखता है तब उपमा, अनन्वय, स्मरण आदि अलंकार निर्मित होते हैं। सादृश्यका क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है और साधर्म्यका उसकी अपेक्षा संकुचित है। अजितसेनने सादृश्यमूलक अलंकारोंके अतिरिक्त अलंकारोंके वर्गीकरणका आधार, निम्नलिखित माना है--- १. अध्यवसायमूलकत्व । २. विरोधमूलकत्व । ३. वाक्यन्यायमूलकत्व । ४. लोक-व्यवहारमूलकत्व । ५. तर्क-न्यायमूलकत्व । ६. शृंखला-वैचित्र्य । ७. अपह्नवमूलकत्व। ८. विशेषणवैचित्र्यहेतुकत्व । अजितसेनने उपमालंकारकी परिभाषा बड़े ही स्पष्ट रूपमें अंकित की है। उन्होंने उपमाका लक्षण लिखते हुए बताया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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