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________________ -१८८३ ] द्वितीयः परिच्छेदः आदिः पादो द्वितीयो वा तृतीयो वा चतुर्थकः । 'निगुह्यते चतुर्भेदे निगूढब्रह्मदीपिके ॥१८५३॥ भूमिपामरतुष्ट्यङ्गमाश्रितो मुदितोऽनिशम् । असुभृत्तीव्रपीडातः पातु मां मुनिसुव्रतः ।।१८६३।। गूढदीपिका। शीतलं विदितार्थोघं शीतीभूतं स्तुमोऽनघम् ॥ सुविदां वरमानन्दसूदितानङ्गदुर्मदम् ॥१८७३।। छत्रबन्धः। यच्चात्र लक्षणं नोक्तं नीरोष्ठ्यबिन्दुमदित्यादिना प्रोक्तचित्रसामान्यलक्षणमेव बोद्धव्यम् । विशेषलक्षणं तु यत्रास्ति तत्रावगम्यताम् । चन्द्रातपं च सततप्रभपूतलाभभद्रं दयासुखदमङ्गलधामजालम् । वन्दामहे वरमनन्तजयानयाज त्वां वोरदेव सुरसंचयशासशास्त्रम् ॥१८८३॥ अस्य विवरणं चान्द्री चन्द्रातपोऽपि च भवतापहृतौ कौमुदीसदशम् । अनन्तं संसारं जयतोति अनन्तसंसारजयः । आ समन्तात् नयति मोक्षमार्ग वक्तीत्यानयः । हारबन्धः । निगूढपादका स्वरूप चार भेदवाले निगूढ ब्रह्मदीपक बन्धमें प्रथम, द्वितीय, तृतीय अथवा चतुर्थपाद निगूढ किया जाता है। प्रथमादि पादोंकी निगूढतासे ही इसके चार भेद होते हैं ॥१८५३॥ उदाहरण राजगण और देवगण जिसके शरीरके दर्शनमात्रसे निरन्तर हर्षित होते हैं, ऐसे बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत नाथ संसारके तीव्र दुःखोंसे हमारी रक्षा करें ॥१८६३॥ जिसने जीवाजीवादि पदार्थसमूहको जान लिया है, जो सुखदायक हैं, निष्पाप हैं और सुज्ञानियों में जो श्रेष्ठ हैं तथा जिन्होंने अनायास ही कामदेवके गर्वको खण्डित कर दिया है, उन दशम तीर्थंकर शीतलनाथकी स्तुति करता हूँ ॥१८७३।। छत्रबन्ध हे वीरदेव ! वर्धमानजिनेन्द्र ! तुम भवातापको दूर करनेके लिए कौमुदीचन्द्रमाकी चाँदनीके समान शीतलतादायक हो, निरन्तर शोभमान हो, पवित्रज्ञानलाभके कारण श्रेष्ठ या शुभकर हो, दया-सुख आदिके देनेवाले हो, अनन्तसंसारके १. निगृह्यते -ख । २. गूढब्रह्मदीपिका-क । ३. चन्द्राततपं-ख । ४. अनन्तजयः -ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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