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________________ अलंकारचिन्तामणि दोनोंके द्वारा सौन्दर्यका सृजन होता है । अर्थालंकारके छह आधार हैं-(१) साधर्म्य, (२) अतिशय, ( ३ ) वैषम्य, ( ४ ) औचित्य, ( ५ ) वक्रता और ( ६ ) चमत्कार । साधर्म्यमूलक अलंकारों द्वारा मुख्यतः हम अपने कथनको स्पष्ट करते हुए श्रोताकी मनोवृत्तियोंको अन्वित करते हैं। जैसे हम किसी सुन्दरीके मुखकी चन्द्रमासे उपमा देते. ... तो मुखके देखनेसे हमारे मनमें जो विशिष्ट भाव उत्पन्न होते हैं उनका हम प्रसि - मानकी सहायतासे साधारणीकरण करते हैं । चन्द्रमा सौन्दर्यका प्रतीक है । हम किसी सुन्दरीके मुखको चन्द्रमाके समान कहकर अपनी उद्दीप्त भावनाको श्रोता या पाठकके हृदयमें प्रेषित करते हैं । इस प्रकार हमारी उक्तिके प्रभावको पूर्णतः ग्रहण कर श्रोताकी वृत्तियाँ प्रसन्न होकर अन्वितिके लिए प्रस्तुत हो जाती हैं। साधर्म्यमूलक अलंकार लोकातिशयताके द्वारा मनका विस्तार करते हुए वृत्तियोंको ऊर्जस्वित् करते हैं। वैषम्यमूलक अलंकारोंकी रसानुभूति में योग देनेको विधि साधर्म्यमूलक अलंकारोंसे बिलकुल विपरीत है। ये वैषम्य-शब्दगत या अर्थगत निषेधके द्वारा आश्चर्यचकित कर हमारी वृत्तियोंको अन्वित करने में सहायक होते हैं। ___औचित्यमूलक अलंकार हमारी वृत्तियोंको सीधे रूपमें समन्वित होने में सहायक हैं। वक्रतामूलक अलंकार कार्य-जिज्ञासाको उभाड़कर पूरा करते हैं । वक्रता पर आश्रित अलंकार गोपनकी सहायतासे हमारे मनमें जिज्ञासा उत्पन्न करते हैं। हमारी वृत्तियोंकी गतिको थोड़ा रोककर उन्हें तीव्र बनाते हैं और फिर वास्तविक अर्थकी संगति द्वारा उनकी अन्वितिमें सहयोग देते हैं। चमत्कारमूलक अलंकारोंका बुद्धिके व्यायामसे अधिक सम्बन्ध है। और नियोजन भी मुख्यतः मस्तिष्ककी क्रियाओं तक ही आश्रित है। इस श्रेणीके अलंकार मनमें कौतूहल उत्पन्न कर वृत्तियोंको जागरूक बनाते हैं। अलंकारका कार्य भावोद्दीपन करना है । सामान्य तथ्य भी अलंकारयुक्त होकर मनोहर और रमणीय हो जाते हैं। अलंकारके रहस्यको अवगत करने के लिए कल्पनाके महत्त्वको समझ लेन' आवश्यक है । काव्यका सर्जन कल्पना द्वारा ही होता है। प्रतिभासम्पन्न कवि कल्पनाके सहारे ही सौन्दर्यकी सृष्टि करता है। कल्पना अलंकारका ही रूपान्तर है। कल्पना चार प्रकारकी होती है-(१) स्वस्थ, (२) अतिरंजित, (३) मानवीकर" प्रेरित और (४) आदर्श । स्वस्थ कल्पना कारण और कार्यकी शृखलासे स्वाभाविकताकी सृष्टि करती है। इसके द्वारा स्वानुभूतिकी परिधि अत्यन्त विस्तृत होकर संसारगत व्यापारमात्रको समेट लेती है। इस प्रकारकी कल्पना अलंकारप्रयोगके बिना सम्भव नहीं। अतिरंजित कल्पना तो अलंकारमूलक ही है। इसके द्वारा असम्भावित परिस्थितियोंको प्रत्यक्ष जगत्में अवतरित कर अन्विति उत्पन्न की जाती है। जीवनके रागात्मक सम्बन्धोंकी वास्तविकता एवं उनकी समष्टिगत परिव्याप्ति अलंकृत भाषाके बिना सम्भव नहीं है। विविध परिस्थितियों में अलंकार कल्पनागत चमत्कारका सर्जन करते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि अलंकृत भाषा और कल्पना-वैविध्य जीवनगत सौन्दर्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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