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[२।११९
अलंकारचिन्तामणिः संस्कृतं प्राकृतं तस्यापभ्रंशो भूतभाषितम् । इति भाषाश्चतस्रोऽपि यान्ति काव्यस्य कायताम् ॥११९।। संस्कृतं स्वगिणां भाषा शब्दशास्त्रेषु निश्चिता। प्राकृतं तज्जतत्तुल्यदेश्यादिकमनेकधा ॥१२०।। अपभ्रंशस्तु यच्छुद्धं तत्तद्देशेषु भाषितम् । यद्भूतैरुच्यते किंचित्तद्भौतिकमिति स्मृतम् ॥१२१॥ इत्येतद्भाषाकुशलैश्चित्रमनेकधा कर्तव्यम् । चित्रजातिः। सेव्वगुणसीळकळियो सव्वामरपूजियो महाबोहो । सव्वहिदमहरवक्को केणप्पा हवदि परमप्पा ॥१२२॥ रेयणत्तयेण । शुद्धप्राकृतम् ।
संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और भूतभाषा-पैशाची, ये चारों भाषाएँ काव्यको अंगताको प्राप्त करती हैं ॥११९३॥
व्याकरण शास्त्रमें निश्चित की गयी संस्कृत देवभाषा है। संस्कृतके शब्दोंसे निर्मित और उसके तुल्य तत्तद्देशोंमें बोली जानेवाली प्राकृत भाषा अनेक प्रकारकी होती है। तात्पर्य यह है कि प्राकृतके तद्भव शब्द संस्कृत शब्दोंसे निर्मित हैं; क्योंकि वैयाकरणोंने प्राकृत भाषाके तद्भव शब्दोंका संस्कृत प्रकृति मानकर अनुशासन किया है । तत्सम शब्द संस्कृतके समान हैं। पर देश्य शब्दोंका सम्बन्ध संस्कृतके साथ नहीं है । अतएव स्पष्ट है कि प्राकृतभाषाको उत्पत्ति संस्कृतसे नहीं हुई है, किन्तु वैयाकरणोंमें सुविधाके लिए तद्भव शब्दोंको संस्कृत शब्दों द्वारा समझाया है ॥१२०॥
विभिन्न स्थानों में अपभ्रष्टरूपसे ( अशुद्धरूपसे ) बोली जानेवाली भाषाको अपभ्रंश कहते हैं, जो भाषा भूतोंके द्वारा बोली गयो है, उसे भौतिक-पैशाची भाषा कहते हैं ।।१२१३॥
उक्त चारों भाषाओंमें कुल कवियोंको अनेक प्रकारसे चित्र काव्यकी रचना करनी चाहिए । यह चित्रजातिका उदाहरण है।
सम्पूर्ण गुण और शीलसे युक्त, समस्त देवों द्वारा पूज्य, महाज्ञानी, सर्वहितकारी एवं मधुरभाषी यह जीवात्मा किस कारणसे परमात्मा होता है ? ॥१२२३॥
__ उत्तर-रयत्तयेण-रत्नत्रयेण अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रय द्वारा यह जीवात्मा परमात्मा बनता है। यह शुद्ध प्राकृतका उदाहरण है। १. अस्य संस्कृतं यथा-सर्वगुणशीलकलितः सर्वामरपूजितो महाबोधः । सर्वहितमधुरवक्ता केनात्मा भवति परमात्मा ॥१॥ मूलप्रती पादभागे। २. रत्नत्रयेण मूलप्रतौ पादभागे।
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