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पुरोवाकू
प्राचीन पाण्डुलिपियों का समुद्धार जितना ज्ञानसाध्य है, उतना ही श्रमसाध्य । पग-पग पर विषय, भाषा और लिपिकी इतनी और ऐसी समस्याएँ आ खड़ी होती हैं कि उनके समाधानका क्लेश सधर्मा ही समझ सकता है । मार्ग बनाने और बने-बनाये मार्गपर चलने में जो अन्तर है वही पाण्डुलिपिके सम्पादन और सम्पादित मुद्रित पाण्डुलिपिके अध्ययनमें है । मुद्रित रूपको देखनेवाला उसमें निहित श्रमकी यथावत् कल्पना भी नहीं कर पाता ।
'अलंकार चिन्तामणि' के सम्पादन में डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री जीने जिस वैदुष्यका परिचय दिया है और जो श्रम किया है, उसके लिए वे अलंकारशास्त्रविदोंके अनल्प साधुवादके भाजन हैं । शास्त्री जी बहुज्ञ और विशिष्ट विद्वान् होनेके साथ अरोचकी तथा अभिनिवेशी लेखक भी हैं । अलंकारशास्त्र और भाषाशास्त्र में उनकी 'समं लीलायते भारती' । उनका 'अभिनव प्राकृत व्याकरण' हिन्दी में प्राकृतका सर्वोत्कृष्ट व्याकरण है । 'मागधम्' नामक षाण्मासिक संस्कृत शोध-पत्रिकाके नियमित एवं सारवान् प्रकाशनके द्वारा उन्होंने संस्कृत पत्रकारिताके क्षेत्र में ईर्ष्या मानदण्ड स्थापित किया है । 'मागधम्' के सभी अंक स्थायी महत्त्वके हैं । उनके अनेक ग्रन्थ हैं ।
'अलंकारचिन्तामणि' श्री अजितसेनाचार्यकी रचना है जिनका समय शास्त्री जीने तेरहवीं शताब्दीका उत्तरार्ध ( सन् १२६६ ई० ) निर्धारित किया है । अजित - सेन जैसे जैन अथवा रूपगोस्वामी जैसे वैष्णव आचार्य द्वारा अलंकारशास्त्रीय ग्रन्थोंका प्रणयन इस बातका सूचक है कि अलंकारशास्त्रका प्रसार केवल कवियों और काव्यालोचकों तक ही सीमित नहीं था, बल्कि वह धार्मिक मतवादोंके प्रचारका लोकप्रिय माध्यम भी था । 'अलंकारचिन्तामणि' के रचयिताकी प्रतिज्ञा है :
अत्रोदाहरणं पूर्वपुराणादिसुभाषितम् ।
पुण्यपुरुषसं स्तोत्रपरं स्तोत्रमिदं ततः ॥ - अ. चि. १५
इससे ग्रन्थकारका दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है । 'अलंकार चिन्तामणि के उदाहरण सत्पुरुषों के सुचरितसे सम्बद्ध और पुराणोंसे गृहीत हैं; अतः यह ग्रन्थ प्रकारान्तरसे स्तोत्र ही है ।
अजितसेनाचार्यकी काव्यलक्षण विषयक धारणा समन्वयात्मक है । उनके अनुसार काव्य शब्दालंकार तथा अर्थालंकारसे युक्त, नव रसोंसे समन्वित, रीतियोंके प्रयोगसे
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