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प्रस्ताव ६ : उपसंहार
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उपसंहार यदिदमसुलभं भो ! लब्धमेभिर्मनुष्यबहुविधभवचारात्यन्तरीणैर्नरत्वम् । तदपि नयनलोलामैथनेच्छापरीता,
लघुधनलवलुब्धा नाशयन्त्येव मूढाः ।।७१४।। अनेक प्रकार के सांसारिक भ्रमणों के पश्चात् बड़ी कठिनाई से यह मनुष्य जन्म प्राप्त होता है, जिसे मूर्ख प्राणी रूप-सौन्दर्य का लोभी बनकर, मैथुन की अभिलाषाओं में डूबकर और थोड़े से धन में लुब्ध होकर यों ही गंवा देता है, व्यर्थ ही नष्ट कर देता है। [७१४]
विगलितास्त इमे नरभावतः, प्रबलकर्ममहाभरपूरिताः । सततदुःखमटन्ति पुनः पुनः,
सकलकालमनन्तभवाटवीम् ।।७१५।। इस प्रकार कठिनाई से प्राप्त मनुष्य भव से भ्रष्ट होकर प्राणी दुष्कर कर्मों का विशाल बोझ धारण कर बहुत लम्बे समय तक अनन्त संसार अटवी में महा भयंकर दुःख भोगता हुअा भटकता रहता है । [७१५]
तदिदमत्र निवेदितमञ्जसा, जिनवचो ननु भव्यजना ! मया । इदमवेत्य निराकुरुत द्र तं,
नयनसागरमैथुनलोलताम् ।। ७१६ ।। भव्य प्राणियों ! यहाँ मैंने संक्षेप में जिनेश्वर भगवान् के वचनों का प्रतिपादन किया है । उसकी वास्तविकता को आप समझे तथा रूप, लोभ और मैथुन को समस्त प्रकार की आसक्ति को शीघ्र ही दूर करें ।। ७१६ ।।
उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा का लोभ, मैथुन और चक्षुरिन्द्रिय विपाक वर्णन का यह छठा प्रस्ताव सम्पूर्ण हुमा।
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