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उपमिति-भव प्रपंच कथा
नीचे धन अवश्य छिपा हा होना चाहिये । हे भद्र ! उस समय अन्दर से मेरे सागर मित्र ने उस धन को निकालने की प्रेरणा की कि, 'धनशेखर ! शीघ्र ही इस निधान को खोदकर बाहर निकाल ।' थका होने पर भी मित्र की प्रेरणा से मैंने जमीन खोदी । गहरा खोदने पर मैंने देखा कि दैदीप्यमान रत्नों से भरा एक विशाल घड़ा रखा है । ये रत्न इतने पानीदार थे कि इनकी आभा से चारों तरफ प्रकाश ही प्रकाश फैल रहा था। हे सुलोचने ! ज्यों ही मैं प्रसन्नचित्त होकर सागर की आज्ञा से रत्नपूरित कुम्भ को ग्रहण करने के लिये बढ़ा त्यों ही महाभीषण नाद से दिशाओं को बधिर करता हुआ जमीन में से काल जैसा भयंकर वैताल बाहर निकल आया । उसकी आँखों से ज्वाला निकल रही थी और मुंह से फट-फट् की भीषण आवाज निकल रही थी, लम्बी दाढ़ें बाहर निकली हुई थी और उसका मुंह यमराज से भी अधिक भयंकर था। हे भद्र ! देखते ही देखते उसने रोते-चिल्लाते हुए मुझे बलपूर्वक अपने मुंह रूपी कोटर में ठूस लिया और कड़कड़ करते हुए चबा गया।
[६६६-७०८] धनशेखर के भव में आते हुए भवितव्यता ने मुझे जो गोली दी थी वह उसी समय घिस-घिस कर पूर्ण हो गई, अतः भवितव्यता ने तत्काल ही मुझे नई गुटिका प्रदान की। उस गुटिका के प्रताप से मैं फिर पापिष्ठ निवास नगरी के सातवें मोहल्ले में चला गया। हे सुमुखि ! यहाँ अनेक प्रकार के भयंकर दुःखों का अनुभव करके जब मैं वहाँ से बाहर निकला तो भवितव्यता की प्रबलता से मैं फिर अनन्त काल तक अनेक स्थानों पर भटका । हे पापरहिता ! मेरे दु:खों का क्या वर्णन करू ? संक्षेप में संसार का कोई ऐसा स्थान नहीं रहा जहाँ मैं न गया हूँ और सर्व प्रकार के दुःख न भोगे हों।
इस प्रकार अनेकों दुःख सहन करने के पश्चात् मेरे कुछ शुभ कर्मों के प्रताप से मेरी पत्नी भवितव्यता ने पुनः एक बार मुझ से कहा- नाथ ! आर्य पुत्र !! एक साह्लाद नामक पत्तन है जो बहुत सुन्दर है, अत्यन्त प्रसिद्ध है और बाह्य प्रदेश में स्थित है। आप पहले जैसे अन्य नगरों में गये हैं वैसे ही अब इस नगर में जाकर रहें। [७०६-७१३]
___मुझे तो मेरी पत्नी की आज्ञा माननी ही थी, क्योंकि उसके समक्ष मेरा कुछ भी वश नहीं चलता था. अतः मैंने देवी की आज्ञा शिरोधार्य की। इस समय भी देवी ने मेरे साथ पुण्योदय नामक एक सहचर भेजा और मुझे एक नयी गोली बनाकर दी। उस गोली के प्रताप से अपने सहायक के साथ मैंने साह्लाद नगर जाने के लिये प्रस्थान किया।
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