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________________ २०२ उपमिति-भव-प्रपंच कथा हे देव ! इस प्रकार देव और दानव अष्ट महाप्रातिहार्यों की रचना करते हैं। इससे यह महाभाग्यशाली वरिष्ठ राजा अधिक सुशोभित होता है । [६१४-६२५] देवताओं द्वारा रचित प्रातिहार्यों के अतिरिक्त स्वयं वरिष्ठ राजा का शरीर अति सुगन्धित होता है, मल, स्वेद और रोगरहित होता है। इनके शरीर का मांस और रक्त गाय के दूध जैसा या मोती के हार जैसा धवल होता है । इनका आहार और नीहार चर्मचक्षु से नहीं दिखाई देता । श्वासोच्छवास कमल जैसा सुगन्धित होता है । ये चारों गुण जन्म से ही इन्हें प्राप्त होते हैं । [६२६-६२७] _प्रभु के उपदेश प्रदान करने हेतु देवता एक योजन मात्र के समवसरण की रचना करते हैं, किन्तु प्रभु के अतिशय से उसमें करोड़ों मनुष्य और देवता बैठ सकते हैं, तनिक भी भीड़-भाड़ नहीं होती। प्रभु अर्धमागधी भाषा में उपदेश देते हैं, किन्तु सुनने वाले सभी मनुष्य, तिर्यञ्च और देवता उसे अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं। एक योजन में बैठे हुए सभी प्राणियों को प्रभु की वाणी सम्यक् प्रकार से सुनाई देती है। प्रभु के विचरण-स्थानों के चारों ओर पूर्वोत्पन्न वैर-विरोध, महामारी, ईति आदि का उपद्रव और बीमारियां स्वतः ही शांत हो जाती हैं और उनके प्रताप से भविष्य में कुछ समय तक उत्पन्न नहीं होतीं। उपरोक्त भूमि में सौ योजन तक दुभिक्ष (अकाल), अतिवृष्टि, अनावृष्टि, चोर-डाकुओं का भय और स्वचक्र एवं परचक्र का भय नहीं रहता। महामोहादि शत्रुओं का विनाश हो जाने से सद्गुण स्वतः ही वरिष्ठ राजा में उत्पन्न हो जाते हैं। प्रभु जहाँ विचरण करते हैं वहाँ धर्मचक्र, छत्र, ध्वज, रत्न-जड़ित चामर एवं सिंहासन साथ चलते हैं । देवनिर्मित नव कमलों पर भगवान् चरण रखते हुए विचरण करते हैं। ये नव कमल क्रमश: पीछे से आगे आते रहते हैं एवं उनके प्रभाव से कांटों के मुंह उल्टे हो जाते हैं। प्रभु के नाखून, रोमावली, सिर के केश और दाढ़ी आदि नहीं बढ़ते । शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श मनोहारी हो जाते हैं। छहों ऋतुएं पुष्पादि से युक्त अनुकूल हो जाती हैं । विहार/विचरण भूमि सुगंधित जलसिक्त और पुष्पाच्छादित हो जाती हैं और निरन्तर पंचवर्णी सुगन्धित पुष्प-वर्षा से समवसरण की भूमि जांघों तक भर जाती है । पक्षी भी भगवान् की प्रदक्षिणा करते हैं । सदा काल अनुकूल पवन चलता है। वृक्ष भी भक्तिरस से पूर्ण होकर प्रभु के समक्ष नत हो जाते हैं। कम से कम एक करोड़ देवता भगवान् की सेवा में निरन्तर उपस्थित रहते हैं। ये सभी अतिशय भक्ति से पूर्ण देवताओं द्वारा रचे जाते हैं जो वरिष्ठ राजा को अपने राज्यभोग के समय प्राप्त होते हैं। हे देव ! वरिष्ठ राजा की * पृष्ठ ६०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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