SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 982
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्ताव ६ : वरिष्ठ-राज्य २०१ वरिष्ठ महाराज जिस मार्ग से निर्वृत्ति नगर जाने के लिये निकले, उस मार्ग को वे गुप्त नहीं रखते, उसे सर्व प्राणियों के समक्ष प्रकट करते हैं और सब को उस मार्ग पर चलने का उपदेश देते हैं । इसीलिये देव, असुर और मनुष्य उनके प्रति भक्तिरस से झूमते हुए, अति गहन प्रेम से जिस प्रकार उनकी सेवा-भक्ति करते हैं, वह बतलाता हूँ। इन महाराजा के उपदेश देने के लिये देवता एक अति सुन्दर निर्मल समवसरण की रचना करते हैं* जिसके तीन प्राकार/कोट चांदी, सोने और रत्नों द्वारा बनाये जाते हैं । [महाराजा की सर्वोत्कृष्टता प्रकट करने के लिये निम्न पाठ महा प्रातिहार्यों की रचना देवताओं द्वारा की जाती है।] १. चारों तरफ उड़ते भंवरों की मधुर झंकार गुंजारव ध्वनि युक्त, मनोज्ञ, सुकोमल पल्लव विभूषित प्रशस्ततम अशोक वृक्ष की रचना करते हैं। २. भ्रमर झंकार युक्त मनोहर पंच वर्ण के अनेक प्रकार के पुष्पों की वृष्टि सुरासुर अपने हाथों से निरन्तर करते रहते हैं जिससे दसों दिशायें सुगन्धमय हो जाती हैं। ३. वरिष्ठ महाराज के समवसरण में बैठकर धर्मोपदेश देने के समय देवता ग्रानन्ददायक सुन्दर सुमधुर दिव्य निर्घोष करते हैं। ४. कमल-नाल के सुन्दर तन्तुओं जैसे स्वच्छ, उज्ज्वल और सुन्दर आकार वाले चामर जगत् प्रभु के दोनों तरफ अनवरत ढुलाते रहते हैं। ५. समवसरण के मध्य में अशोकवृक्ष के नीचे चार विशाल सिंहासनों की रचना की जाती है जो अनेक प्रकार के रत्नों की शोभा से जगमगाते रहते हैं, जिस पर बैठकर प्रभु चार मुखों से उपदेश देते हैं। [भगवान् स्वयं पूर्वाभिमुख बैठते हैं, अन्य तीन तरफ देवता उनके प्रतिरूप/प्रतिबिम्ब की रचना करते हैं।] ६. भगवान् के पीछे भामण्डल की रचना की जाती है जो आकाश मण्डल को प्रकाशित करता है और सूर्य के आकार को धारण कर भगवान् के शरीर और कान्ति को उल्लसित करता है। ७. प्रभु के आगमन और उनकी परोपकारिता को प्रदर्शित करते हुए देव किन्नर आकाश में रहकर सुमधुर ध्वनि से देव-दुन्दुभि बजाते हैं, जिसकी ध्वनि कर्णप्रिय, अत्यन्त मधुर और लोगों के हृदय को उल्लसित करने वाली होती है । ८. एक के ऊपर एक ऐसे तीन छत्र प्रभु के सिर के ऊपर सुशोभित रहते हैं जो प्रभु के त्रैलोक्यपति और वरिष्ठ होने की सूचना देते हैं । • पृष्ठ ६०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy