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१३. विमध्यम-राज्य
वितर्क तृतीय वर्ष के राजा का वर्णन करते हुए कहता है-देव ! तीसरे वर्ष में विमध्यम को अन्तरंग राज्य सौंपा गया। गत दो वर्षों में जिस प्रकार घोषणा की गई थी उसी प्रकार इस बार भी की गई। गत वर्षों की भांति इस बार भी महामोह और चारित्रधर्मराज की सभाओं में इस नये राजा के विषय में विचारविमर्श हुआ । [४६२-४६३]
___ महामोह राजा ने अपने मंत्री विषयाभिलाष से पूछा-आर्य ! अन्तरंग राज्य के इस नये राजा के गुणों के सम्बन्ध में क्या जानते हो ? सुनायो । [४६४]
उत्तर में विषयाभिलाष बोला-महाराज ! यह नया राजा वैसे तो हमारे प्रति प्रेम दृष्टि रखने वाला होने से हमें प्रिय तो है, पर कभी-कभी यह चारित्रधर्मराज की तरफ भी देख लेता है। यद्यपि वह अपने हृदय से हमें अपने भाई के समान ही मानता है तथापि चारित्रधर्मराज की सेना से भी अपेक्षा रखता है। इसका प्रेम एवं पक्षपात हमारे प्रति अधिक है और चारित्रधर्मराज के प्रति आदर-सन्मान कम है। इसकी इस लोक के प्रति जैसी आसक्ति है वैसे ही वह परलोक के प्रति भी वांछा करता है, दृष्टि रखता है । इसका मन मुख्यतः धन बटोरने और काम भोगों में आसक्त है, पर कभी-कभी सहज धर्मकार्य भी करता रहता है। यह प्रकृति से सरल, सभी देव-गुरुओं एवं तपस्वीजनों की स्तुति करने वाला, दान देने वाला, शील पालन करने वाला और सत्शास्त्र पर किसी प्रकार का दूषण नहीं लगाने वाला है । हे देव ! यह हमारे लिये बहुत अच्छा नहीं है, क्योंकि चारित्रधर्मराज की सेना के स्वरूप को भी सामान्यतः जानता है । इस वर्ष हमें अधिक सावधान रहना पड़ेगा। जैसे भी हो वैसे इसे भी अन्तरंग राज्य में प्रविष्ट होने से रोकना पड़ेगा। यदि हमने थोड़ी सी भी भूल की तो अंतरंग राज्य में प्रवेश करते ही यह अपनी सेना को पहचान लेगा और उसका पालन-पोषण करेगा, तथा हमारी सेना के लिये बाधायें खड़ी कर देगा, यह निःसंदेह है। यह बाह्य प्रदेश में रहकर ऊपरऊपर से स्वयं की सेना का परिपालन करता रहे तो हमारे लिये अत्यन्त बाधक नहीं बन पायेगा। जैसे हमने पहले दृष्टिदेवी के सहयोग से अधम को उसके राज्य में प्रवेश करने से रोका था, वैसे ही इसे भी रोकना पड़ेगा। अतएव हे स्वामिन् ! अब आप अपनी योजना को क्रियान्वित करने के लिये अविलम्ब आज्ञा प्रदान कीजिये, जिससे कि विमध्यम अपने राज्य में प्रवेश कर अधिकार प्राप्त न कर सके।
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