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________________ प्रस्तावना चारित्र के पूर्व दर्शन को स्वीकार किया है । सम्यग्दर्शन होने पर ही साधक को भेदविज्ञान होता है और वह समझता है कि 'मैं शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, निरंजन और निराकार हूँ । जो यह विराट विश्व में दिखलाई दे रहा है, वह पृथक् है और मैं पृथक् हूँ । आत्मा और शरीर ये पृथक्-पृथक् हैं । सुख और दुःख की जो भी अनुभूति हो रही है, वह मुझे नहीं किन्तु शरीर को है ।' इस प्रकार भेद-विज्ञान का दीप जलते ही जीवन में समता का आलोक जगमगाने लगता है । इसीलिये आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा -- 'भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । जितने भी प्राज दिन तक सिद्ध हुए हैं, वे सभी भेद - विज्ञान से हुए हैं । वस्तुतः सम्यग्दर्शन एक जीवन-दृष्टि है । जीवन-दृष्टि के प्रभाव में जीवन का मूल्य नहीं है । जिस प्रकार की दृष्टि होती है उसी प्रकार की सृष्टि भी होती है प्रर्थात् दृष्टि की निर्मलता से ही ज्ञान भी निर्मल होता है और चारित्र भी । इसलिए सर्वप्रथम दृष्टि निर्मलता को ही सम्यग्दर्शन कहा है | इस विराट विश्व में ऐसी कोई भी श्रात्मा नहीं है, जिसमें ज्ञान गुण न हो । भगवती आदि श्रागमों में आत्मा को ज्ञानवान कहा है ।1 ज्ञान प्रात्मा का ऐसा गुण है, जो विकसित से अविकसित अवस्था में भी विद्यमान रहता है, पर मिथ्यात्व के कारण ज्ञान अज्ञान के रूप में परिवर्तित हो जाता है। पर, ज्यों ही सम्यग्दर्शन का संस्पर्श होता है, अज्ञान ज्ञान के रूप में परिवर्तित हो जाता है । इसीलिए प्राचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है- 'ज्ञान ही मानव जीवन का सार है ।' अविद्या के कारण ही पुनः पुनः जन्म और मृत्यु के चक्कर में श्रात्मा आती रहती है । वह एक गति से दूसरी गति में परिभ्रमण करती है । जिस श्रात्मा में ज्ञान और प्रज्ञा होती है, वही आत्मा निर्वारण के समीप होती है । ज्ञान रूपी नौका पर आरूढ़ होकर पापी से पापी व्यक्ति भी संसार रूपी समुद्र को पार कर जाता है । ज्ञान ऐसी जाज्वल्यमान अग्नि है, जो कर्मों को भस्म कर देती है । इसीलिये कुरुक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि 'इस विश्व में ज्ञान के सदृश अन्य कोई भी पवित्र वस्तु नहीं है ।' ज्ञान वह है, जो आत्मविकास करता हो । उसका दृष्टिकोण सदा सत्यान्वेषी होता है । वह स्व का साक्षात्कार करता है । इसीलिये प्राचारांग के प्रारंभ में ही कहा गया कि 'साधक प्रतिपल, प्रतिक्षरण यह चिन्तन करे कि, मैं कौन हूँ ?' छान्दोग्योपनिषद् में भी ऋषियों ने कहा - जिसने एक आत्मा को जान लिया, उसने सब कुछ जान लिया । उपाध्याय यशोविजय जी ने ज्ञानसार ग्रन्थ में लिखा है, जो ज्ञान मोक्ष का साधक है - वह श्रेष्ठ है । और जो ज्ञान मोक्ष की साधना में बाधक है, वह ज्ञान निरुपयोगी है । जिस ज्ञान से श्रात्मविकास नहीं होता, ( क ) भगवती १२ / १० (ग) समयसार, गाथा ७ २. छान्दोग्योपनिषद् ६ / १ / ३ १. Jain Education International ८१ (ख) आचारांग, ५/५/१६६ (घ) स्वरूप - सम्बोधन, ४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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