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________________ ८० उपमिति-भव-प्रपंच कथा का फल स्वयं को ही भोगना पड़ता है, दूसरों को नहीं । श्रमण भगवान महावीर ने भगवती में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि 'प्राणी स्वकृत सुख-दुःख का भोग करते हैं, पर परकृत सुख-दुःख का भोग नहीं करते।' जातक साहित्य का अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि बोधिसत्त्व के अन्तर्मानस में ये विचार लहरियां तरंगित होती हैं कि मेरे कुशल कर्मों का फल संसार के सभी प्राणियों को प्राप्त हो, पर जैन दर्शन इस विचार से सहमत नहीं है । जैसा हम कर्म करेंगे वैसा ही फल हमें मिलेगा । दूसरा व्यक्ति उस कर्म-विभाग में संविभाग नहीं कर सकता । जैन दर्शन ने कर्म सिद्धान्त के सम्बन्ध में अत्यधिक विस्तार से चिन्तन किया है । जैन दर्शन का कर्म सिद्धान्त इतना वैज्ञानिक और अद्भत है कि विश्व का कोई भी चिन्तक उसे चुनौती नहीं दे सकता। उस गहन दार्शनिक सिद्धान्त को प्राचार्य सिद्धर्षि गरणी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में इस प्रकार संजोया है कि देखते ही बनता है। प्राचार्यश्री की प्रकृष्ट प्रतिभा ने ग्रन्थ में चार चाँद लगा दिये हैं। कर्म का जीव के साथ अनादि काल का सम्बन्ध है, पर जीव चाहे तो उन कर्मों को अपने प्रबल पुरुषार्थ से हटा सकता है । कर्म से मुक्त होने के लिए जैन मनीषियों ने चार उपाय बताये हैं। वे हैं--सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप । आध्यात्मिक उत्कर्ष के लिए सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन आवश्यक है । सम्यग्दर्शन का अर्थ--तत्त्व रुचि है, सत्य अभीप्सा है। सत्य की प्यास जब तीव्र होती है, तभी साधना मार्ग पर कदम बढ़ते हैं। उत्तराध्ययन और तत्त्वार्थ सूत्र में सम्यग्दर्शन शब्द तत्त्व-श्रद्धा के अर्थ में व्यवहृत हुया है, तो आवश्यक सूत्र में देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा और भक्ति के अर्थ में सम्यग्दर्शन का प्रयोग है । सम्यग्दर्शन, सम्यक्त्व और सम्यग्दृष्टि आदि शब्द समान अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। सम्यग्दृष्टि का जीव और जगत् के सम्बन्ध में सही दृष्टिकोण होता है। जबकि मिथ्यादृष्टि का जीव और जगत के सम्बन्ध में गलत दृष्टिकोण होता है । मिथ्या दृष्टिकोण संसार का किनारा है और सम्यग्दृष्टिकोण निर्वाण का किनारा है । सम्यग्दर्शन मुक्ति का अधिकार पत्र है। सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान नहीं होता । सम्यग्ज्ञान के बिना सम्यक्चारित्र नहीं होता । और सम्यग्चारित्र के बिना मुक्ति नहीं होती। इसलिए सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन की आवश्यकता है। सम्यग्दर्शन आध्यात्मिक जीवन का प्राण है, जैसे चेतनारहित शरीर शव है, वैसे ही सम्यग्दर्शन रहित साधना भी शव की तरह ही है । __सम्यग्दर्शन मुक्ति महल में पहुँचने का प्रथम सोपान है, इसलिये दर्शन पाहुड़ और रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि में जीवन विकास के लिए ज्ञान और १. उत्तराध्ययन २८/३५ २. तत्त्वार्थ सूत्र १/२ ३. अगुत्तर निकाय १०/१२ ४. दर्श पाहुड़, गाथा, श्रावकाचार १/२८ ५. रत्नकरण्डक श्रावकाचार १/२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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