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________________ ६. उत्तमसूरि उत्तमसूरि का पदार्पण अन्यदा अनेक गुणरत्नों की खान आचार्य उत्तमसूरिजी महाराज प्रानन्दनगर में पधारे । उनके साथ में अनेक सत्साधुओं का बड़ा भारी संघ आया था और वे सभी नगर के बाहर मनोरम उद्यान में ठहरे थे। प्राचार्य के आगमन के समाचार मिलने पर राजा हरिकुमार बहुत प्रसन्न हुआ और समस्त राज्यवृन्द से परिवृत होकर बड़े आडम्बर/उत्सव के साथ उनकी वन्दना करने उद्यान में गया। प्राचार्य श्री की विधिपूर्वक वन्दना कर, सभी साधुओं को नमस्कार कर, सुखसाता पूछकर वह शुद्ध जमीन पर बैठा और उनके साथ ही समस्त राज परिवार भी प्राचार्यदेव की धर्मदेशना सुनने के लिये उत्सुक होकर भूमि पर बैठा। प्राचार्य महाराज ने सब के योग्य सब को समझ में आ सके, ऐसा अमृत स्वरूप उपदेश दिया। [३२०-३२३] हरिशेखर की जिज्ञासा : समाधान ___ महाराजा हरिकुमार भी उपदेश सुनकर अपने मन में बहुत आनन्दित हुए और उनका चित्त प्रसन्न हो गया। राजा को ज्ञात हुआ कि प्राचार्य श्री का ज्ञान सूक्ष्म पदार्थों को भी भली-भांति जान लेता है, दूर रहे हए अथवा व्यवधानयुक्त पदार्थों के बारे में भी वे जान जाते हैं, भूतकाल में घटित घटनाओं के विषय में और भविष्य काल में घटित होने वाली घटनाओं के विषय में भी वे जान सकते हैं । जब राजा को इस बात का विश्वास हो गया तब वे सोचने लगे कि धनशेखर मेरा प्रिय मित्र था, फिर भी उसने मुझे समुद्र में क्यों धकेला ? पहले तो वह मेरा इष्टमित्र था फिर एकाएक उसके विचार परिवर्तित कैसे हुए और उसने ऐसा कुव्यवहार क्यों किया ? वह देव कौन था ? कहाँ से आया था ? उसने रुष्ट होकर धनशेखर को समुद्र में क्यों फेंक दिया ? मेरा मित्र धनशेखर अभी जीवित है या मर गया ? आदि-आदि अनेक प्रश्न और वह समग्र घटना हरि राजा को याद आ गई। [३२४-३२८] अभी राजा यह सब बातें अपने मन में सोच ही रहे थे कि आचार्य उत्तमसूरि ने उनके मन के सब भाव मनःपर्यव-ज्ञान द्वारा जान लिये और कहने लगेराजन् ! तुम्हारे मन में यह प्रश्न उठा है कि तेरा मित्र तुझ पर बहुत प्रेम रखता था फिर भी उसने तुम्हें समुद्र में क्यों फेंक दिया ? सुनो, इसका उत्तर यह है कि, इस धनशेखर के सागर और मैथुन नाम के दो अन्तरंग मित्र हैं। सारा अपराध इन दोनों मित्रों का है। उस बेचारे का तो इसमें कुछ भी दोष नहीं है। यह धन शेखर अपने स्वभाव से तो अच्छा है, भला है और सुन्दर है, पर इसके ये पापी मित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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