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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
करके भी किसी भी प्रकार से धन इकट्ठा करना ही चाहिये। धन की महिमा इस संसार में कुछ और ही प्रकार की है।
धनवान मनुष्य कितना भी पाप करे तब भी धन की महिमा के कारण वह लोगों में पूजा जाता है, लोग उसकी सेवा करते हैं, सगे-सम्बन्धी उसके चारों तरफ फिरते हैं, भाट चारण उसकी महिमा गाते हैं, बड़े-बड़े विद्वान् एवं पंडित लोग भी उसका सन्मान करते हैं और अत्यन्त विशुद्ध धर्मात्मा मनुष्य से भी अधिक धर्मात्मा उसे माना जाता है। धन की ऐसी स्थिति है। इसीलिये हे धनशेखर ! तू सर्व प्रकार के विषाद का त्याग कर, धैर्य धारण कर और फिर से द्विगुणित उत्साहपूर्वक धन कमाने के कार्य में परिश्रम प्रारम्भ करदे । तू मेरी शक्ति को बराबर समझ ले और जैसा मैं उपदेश/परामर्श दे रहा हूँ वैसा कर ।
हे सुन्दरांगी अगहीतसंकेता! इस दुरात्मा सागर मित्र के परामर्श, पाप पूर्ण उपदेश और प्रेरणा से प्रेरित होकर मैंने पुनः अनेक प्रकार के पातकी कार्य प्रारम्भ किये । अर्थात् उसने नये-नये प्रकार के पाप करने और नये-नये व्यापार करने के लिये मेरी बुद्धि को प्रेरित किया और उकसाया जिससे मैं दुर्बुद्धि अनेक प्रकार के पाप कर्म करने लगा। यह सागर मुझे जो आज्ञा देता उस पर मैं बिना विचार किये जैसा वह कहता वैसे सब धन्धे करता, व्यापार करता । इस प्रकार उसमें होने वाले समस्त पापों को मैं अपनाने लगा। इस प्रकार मैंने अनेक पाप कर्म किये, मगर मुझे एक फूटी कौड़ी भी मिली नहीं, क्योंकि मेरा मित्र पुण्योदय तो कभी का रुष्ट होकर मेरे से दूर चला गया था। इसीलिये हे सुन्दरि ! पुण्योदय-रहित और मिथ्याभिमान के वश होकर मैं अपने श्वसुर बकुल के यहाँ भी नहीं गया।
[३१२-३१५] मेरी ऐसी विषम दशा हो गई थी और मैं ऐसी असहनीय स्थिति से गुजर रहा था, फिर भी मेरा मित्र मैथुन अपने अन्य मित्र यौवन के साथ मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था । वह मुझे बार-बार प्रेरित करता, उकसाता रहता था। परन्तु, मैं तो एकदम निर्धन गरीब हो गया था और मेरा पुण्योदय मित्र भी मुझ से विदा हो गया था जिससे कोई अच्छी स्त्री तो मेरे सामने देखती भी नहीं थी। सुन्दरी तो क्या पर कोई कानी कुबडी स्त्री भी मेरी तरफ नहीं झांकती थी। इस प्रकार मैथुन सेवन की इच्छा और प्रेरणा तो अविरत चलती रहती, पर अभीष्ट स्त्रीसंयोग नहीं मिलता, जिससे मेरा मन अन्दर ही अन्दर निरन्तर जलता रहता ।* किन्तु पुण्योदय बिना मेरी इच्छा कभी पूरी नहीं हो सकी। [३१६-३१८]
__ इस प्रकार धन की इच्छा और मैथुन की प्रेरणा से मैंने अनेक देशों में भटकते हुए अनेक प्रकार के दुःखों को सहन किया। सभी जगह मुझे निराशा और निष्फलता ही हाथ लगी और मेरी अभिलाषाएँ पूरी नहीं हुई। [३१६]
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