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________________ १५६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा [१८२] मैं सोचता कि हरिकुमार से मेरी मित्रता मेरे धन कमाने के काम में विघ्न पैदा करने वाली है। मेरे ग्रह अच्छे नहीं लगते । जान-बूझकर मैंने यह व्यर्थ का अनर्थ खड़ा किया है। इस कुमार ने तो मुझे बिना पैसे का नौकर बना लिया है। मैं यहाँ रत्न एकत्रित करने आया था, पर अपनी इच्छानुसार रत्न एकत्रित नहीं कर सका । यह तो लोकप्रसिद्ध जमश्र ति (कहावत) मेरे ऊपर ही घटित हो गई है-“गधे को समस्त सुख देने वाला स्वर्ग तो मिल गया पर वहाँ भी हाथ में रस्सी लिए एक धोबी उसे मिल ही गया।" ('भाग्य दो कदम आगे चलता है वाली कहावत चरितार्थ हुई।) मैं तो बिना किसी विघ्न के यहाँ रत्न एकत्रित करने आया था, पर यहाँ भी मुझे उक्त गधे के समान विघ्नरूप यह कुमार मित्र मिल गया। [१८३-१८४] । अब मैं इसको एकाएक छोड़ भी नहीं सकता, क्योंकि यह राजपुत्र है, शक्तिशाली है और यदि यह मेरे ऊपर क्रुद्ध हो गया तो मेरा सर्वनाश कर देगा। अतः अब मुझे कभी-कभी इससे दूर रहना चाहिये, कभी-कभी पास रहना चाहिये, कभी-कभी साधारण मिलन नमस्कार और कभी-कभी उसके मन को अनुरंजित करने वाले कार्य करने चाहिये। मुझे अब किसी भी प्रकार रत्न इकट्ठे करने हैं, इस कार्य में मेरी एकनिष्ठता और मेरे स्वार्थ में विघ्न न पड़े ऐसा ही व्यवहार मुझे कमार के साथ करना चाहिये । [१८५-१८६] मैंने अपने मन में धन एकत्रित करने की जो उपरोक्त धारणा बनाई उसे मैंने कार्यरूप में भी परिणत किया । बहुत प्रयास के पश्चात् मैं रत्नों का प्रचुर संग्रह करने में सफल हुआ । इन रत्नों पर मुझे इतनी गाढासक्ति और उसके प्रति इतना मोह बढ़ा कि मेरी चेष्टायें और व्यवहार को देखकर विवेकी पुरुष हंसने लगे। इस रत्न-राशि पर अत्यन्त मूर्खाग्रस्त होकर इन रत्नों को कभी मैं आँखें फाड़-फाड़ कर बार-बार देखता, कभी उन पर हाथ फेरता, कभी हाथ में लेकर उछालता और कभी छाती से चिपका कर प्रसन्नता से खिल उठता। कभी गड्ढा खोदकर उसमें गाड़ देता और उस पर सैकड़ों प्रकार के निशान बनाता । फिर सोचता कि मुझे यहाँ रत्न गाड़ते हुए किसी ने देख तो नहीं लिया ? इस शंका से रत्नों को फिर उस गड्ढे में से निकालकर दूसरे स्थान पर गाड़ता और फिर उसके ऊपर दूसरे प्रकार का निशान बनाता। समय-समय पर बार-बार जाकर उन निशानों का निरीक्षण करता । मुझे किसी का विश्वास न होता । अविश्वास के कारण रात में नींद नहीं आती और दिन में चैन नहीं पड़ता । हे भद्रे ! सागर मित्र के दोष के कारण मुझे धन पर ऐसी मूर्छा, गाढ आसक्ति, राग और मोह हो गया। अब मैं कभी-कभी समय निकाल कर कुमार के पास चला जाता और उसके मन को आनन्दित कर लौट आता। शेष अधिक समय घर पर ही रहकर अधिकाधिक रत्न इकट्ठे करने की योजना बनाता रहता । रत्नोपार्जन करने में मैं इतना लोलुप बन गया कि मेरी पूरी लगन उसी ओर लग गई और मैं उसी के सपने देखने लगा। मैं सोचने लगा कि रत्नद्वीप में जितने रत्न हैं उन सब रत्नों को इकट्ठे कर उन्हें अपने देश ले जाऊं। [१८७-१९३] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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