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________________ प्रस्ताव ६ : निमित्तशास्त्र : हरिकुमार-मयूरमंजरी सम्बन्ध १५३ रचा गया है। तब उसके मन में विश्वास जमाने के लिए तपस्विनी ने कपड़े पर कपड़े में लिपटे हुए वे चित्र उसे दिखाये । कपड़ा हटाकर कुमार चित्र देखने लगा। प्रथम चित्र में एक अति सुन्दर समान लम्बाई और समान वय वाले विद्याधरदम्पत्ति को उज्ज्वल रंगों में चित्रित किया गया था। वस्त्रावत अंग के उन्नत-अवनत अवयवों की रमणीय संयोजना और उचित प्रकार से पहनाये गये आभूषण इतने स्पष्ट थे कि बारीक से बारीक रेखा भी स्पष्ट झलक रही थी। इस युगल के अवयवों की रचना छोटे-छोटे बिन्दुनों से ऐसी विलक्षण बनाई गई थी कि नूतन प्रेमरस की उत्सुकता स्पष्टतः झलकती थी। विद्याधर-दम्पत्ति प्रेम से एक-दूसरे को हर्षोत्फुल्ल दृष्टि से इस प्रकार देख रहे थे मानो अत्याकर्षक प्रेम का साम्राज्य उनकी आँखों में समा गया हो, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता था। चित्र के नीचे द्विपदी छन्द में लिखित निम्न कविता को भी कुमार ने पढ़ा : प्रियतमरतिविनोदसम्भाषणरभसविलासलालिताः । सततमहो भवन्ति ननु धन्यतमा जगतीह योषितः ।।१७१।। अभिमतवदनकमलरसपायनलालितलोललोचनाः । सूचरितफलमनय॑मनु भवति शमियमम्बरचरी यथा ।।१७२॥ अपने हृदयवल्लभ प्रियतम के साथ प्रेमरति, विनोद, भाषण, प्रेमोत्साह और विलास से सतत लालित स्त्रियाँ इस संसार में वास्तव में विशेष भाग्यशालिनी होती हैं । इस विद्याधरी की भाँति ऐसी स्त्रियाँ स्वकीय मनपसन्द पुरुष को अपने मुखकमल के रस का पान करवाकर अपनी आँखों को तृप्त करती हुई पूर्व-पुण्य के फलस्वरूप अमूल्य सुख का अनुभव करती हैं। प्रथम चित्रपट को देखने के पश्चात् कुमार दूसरा चित्र देखने लगा। इस दूसरे चित्र में एक राजहंसिनी चित्रित की गई थी। वन में लगे दावानल में दग्ध वनलता जैसी, अत्यन्त हिमपात से काली पड़ी हुई कमल के डंठलों जैसी, प्रभात के सूर्योदय से लुटी हुई कान्तिहीन चन्द्रकला जैसी, टूटी और कुमलायी हुई आम्रमंजरी जैसी, सर्वनाश-प्राप्त कृपण स्त्री जैसी, सर्व प्रकार की कान्ति और तेज से रहित, अत्यन्त शोक के कारण समस्त अवयवों से दुर्बल बनी हुई और कण्ठ तक प्राण प्रा गये हों ऐसी यह राजहंसिनी दिखाई दे रही थी । इस चित्र के नीचे भी द्विपदी खण्ड (निम्न कविता) लिखी थी :- * इयमिह निजकहृदयवल्लभतरदृष्टवियुक्तहंसिका । तदनुस्मरणखेदविधुरा बत शुष्यति राजहंसिका ॥१७३॥ रचितमनन्तमपरभवकोटिषु दुःसहतरफलं यया । पापमसौ नितान्तमसुखानुगता भवतीदृशी जन ! ॥१७४।। । पृष्ठ ५६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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