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________________ १५० उपमिति-भव-प्रपंच कथा करने योग्य सभी कार्यों का उसने त्याग कर दिया है । बात यहाँ तक बढ़ गई है कि वह जो नियमानुसार प्रतिदिन देव-गुरु को नमस्कार करती थी, आज उसने वह भी नहीं किया है। उसने रात के पहने हुए कपड़े भी नहीं बदले हैं, प्रतिदिन प्रात: पहनने के आभूषणों को छुया भी नहीं है, न विलेपन किया है और न पान ही खाया है । स्वनिर्मित अपने बाल उद्यान की देखभाल स्वयं प्रतिदिन करती है वह भी आज भूल गई है। अपनी सहेलियों को साधारण मान भी नहीं देती, अपने पाले हुए तोता मैना की देखभाल भी नहीं करती और गेंद क्रीड़ा भी नहीं करती। मात्र विद्याधरों के जोड़ों का चित्र बनाती है, सारसों के जोड़ों को देखती है, बार-बार द्वार की तरफ दौड़ती है और बार-बार अस्फुट शब्दों में आत्मनिन्दा करती है । सखियों पर बिना कारण क्रोध करती है तथा कुछ पूछने पर उत्तर ही नहीं देती, मानो सुना ही न हो। मैं उसके बारे में अधिक क्या बताऊं? मानो यह पागल हो गई हो, शून्यचित्त हो गई हो या उसे भूत लग गया हो । मानो यह मयूरमंजरी न होकर कोई अन्य लड़की हो । [१६३] आज प्रातः से ही उसके व्यवहार में इतना बड़ा अन्तर आ गया है। उसकी ऐसी अवस्था देखकर मेरा मन न जाने कैसा-कैसा हो रहा है । भगवति देवि ! आप तो निमित्तशास्त्र में अतिनिपुण हैं, आप देखकर बतायें कि यह किस विषय में सोच रही है ? साथ ही यह भी बतावें कि यह जिस विषय में सोच रही है, वह उसे प्राप्त होगी या नहीं ? यदि प्राप्त होगी तो कब तक ? निमित्त-शास्त्र ___ मैंने उत्तर में रानी से कहा-मैं देखकर बता रही हं । भाई धनशेखर ! फिर मैंने लग्न निकालने प्रारम्भ किये। प्रथम मंगल के लिये सिद्धि पद लिखा, फिर विशेषमंगल के लिये देवी सरस्वती का मुख कमल बनाया, फिर ध्वजा आदि आठों पायों को बनाया, साथ ही स्त्री हृदय की कुटिलता को प्रकट करने वाली तीन गोमूत्रिकायें (आड़ी-टेढी लकीरें) खींची । गणना करके आठों गायों को उनके स्थान पर रखा । गरगना में जो बचा उसके अनुसार तीन-तीन अंक लिखे, (इन अंकों के अनुसार ही फलादेश प्राप्त होता है) । इस प्रकार सर्वगणना करने के साधनों को प्रयुक्त कर मैंने महारानी से कहा निमित्तशास्त्र में ध्वज, धूम्र, सिंह, श्वान, वृषभ, खर, हस्ति और वायस, ये आठ प्रकार की आयें होती हैं। इन आठ आयों के आठ प्रकार के बल होते हैं जैसे काल, दिवस, समय (अवसर), मुहूर्त, दिशा, नक्षत्र बल, ग्रहबल और निसर्गबल । हे महादेवि ! प्रस्तुत प्रयोजन में यहाँ जो आयें बनी हैं, उनके परिणामस्वरूप ध्वज, खर और वायस आय प्राप्त हुई हैं, इनका फल मैं बताती हूँ। निमित्तशास्त्र कहता है कि इन तीन में से पहली प्राय यह बताती है कि चिन्ता किस विषय में है, दूसरी आय से उसके अच्छे-बुरे फल का पता लगता है और तीसरी पाय से परिणाम कब फलित होगा, इसका पता लगता है । [१६४-१६७ ] * * पृष्ठ ५६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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