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________________ उपमिति भव-प्रपंच कथा भावार्थ-विस्फारित नेत्रों से देखता हो और वाणी को सुनता हो, फिर भी किसे क्यों संतोष नहीं होता, शान्ति नहीं मिलती और इस संसार का कारण क्या है ? १३८ हरिकुमार ने प्रश्न तो सुना पर उसका मन तो चित्र में चित्रित कन्या ने हरण कर लिया था, जिससे उसने मात्र हुंकारा ही दिया । पद्मकेसर ने मन में सोचा कि कुमार ने मेरा प्रश्न बराबर सुना नहीं है अतः इसे फिर से अधिक स्पष्टता से एक बार और बोलूं जिससे कि यह श्लोक उसके ध्यान में या जावे । इस विचार से पद्मकेसर ने उपरोक्त प्रश्न वाला श्लोक दुबारा बोला, पर उसके उत्तर में भी कुमार ने सिर्फ धीरे से हुंकारा ही भरा। इससे पद्मकेसर को पूर्ण विश्वास हो गया कि चित्रलिखित कन्या ने कुमार के हृदय को बिलकुल शून्य बना दिया है, * अतः वह थोड़ा हँस पड़ा। दूसरे मित्र भी परस्पर हंसी करने लगे और एक दूसरे का मुंह देखने लगे । यह देखकर हरिकुमार का मन कुछ ठिकाने आया। उसे लगा कि उसके मित्रों ने उसकी मानसिक दशा को जान लिया है और यह ठीक नहीं हुआ है । इससे उसके मन में अभिमान जागृत हुआ और उसने अपने मन में कन्या के सम्बन्ध में जो संकल्पविकल्प हो रहे थे, उनको दबा दिया तथा ध्यानपूर्वक सुनने लगा । उसके मन में कुछ विचार आये और वह बोला--रे मित्र ! तू हँस क्यों रहा है ? मेरी हँसी उड़ाने की श्रादत छोड़ दे । तेरा प्रश्न एक बार फिर से बोल । इस पर पद्मकेसर ने उपरोक्त श्लोक को पुनः पढ़ा । इस समय कुमार का प्रश्न पर ध्यान था, अतः जैसे ही प्रश्न पूरा हुआ उसके मन में उत्तर भी आ गया और उसने तत्क्षण उत्तर दिया" ममत्वं" । [ यहाँ कुमार के उत्तर को समझ लेना चाहिये । प्रश्न था खुली आँखों से देखने पर और वाणी को सुनने पर भी किसे किसलिये शांति नहीं मिलती ? उत्तर है 'ममत्व' मेरापन | यह मोह राजा का संसार को अंधा करने वाला मंत्र है | पूरी दुनिया को नचाने वाला, भटकाने वाला, फंसाने वाला यह मंत्र प्रारणी को बिलकुल विचित्र बना देता है । प्राँख से देखते हुए और कान से सुनते हुए भी ममत्व की वस्तु के प्रति कभी तृप्ति होती ही नहीं, कभी अघाता ही नहीं, उसे कभी शांति नहीं मिलती । चाहे जितना देखें और सुनें पर अभी और अधिक सुनने और देखने की उसकी इच्छा कभी पूरी नहीं हो पाती, इस सब का कारण ममत्व / अभिमान / मेरापन है । दूसरा प्रश्न है - संसार का कारण क्या है ? इसका उत्तर भी ममत्व ही है । संसार-भ्रमरण, भवपरिपाटी, चक्रपर्यटन का कारण भी ममत्व ही है । मोह राजा का स्थान और उसके अधिकारों का वर्णन इस ग्रन्थ को पढ़ने वाले पाठक भली प्रकार जानते हैं, अतः इस सम्बन्ध में अधिक विवेचन करना व्यर्थ है । इस प्रकार दो पंक्ति के प्रश्न का उत्तर कुमार ने तीन अक्षरों में दे दिया । ] ** पृष्ठ ५६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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