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प्रस्ताव ६ : हरिकुमार की विनोद गोष्ठी
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मित्रता का ही रखा । कुमार के साथ श्रानन्द करते-करते मेरे कई दिन व्यतीत हो गये । [ १०६-१०६ ]
कुछ समय पश्चात् कामदेव को उद्दीप्त करने वाली, प्राणियों के श्रानन्द में वृद्धि करने वाली और उद्यानों के लिए आभूषण जैसी बसन्त ऋतु * आई । उस समय हरिकुमार मुझे साथ लेकर अपनी मित्र - मण्डली सहित उद्यान की शोभा देखने के लिए घूमने निकला । घूमते हुए कोकिलाओं की कुहु कुहु से कूजित रमरणीय आनन्ददायी आम्रवन में पहुँच कर हम सब बैठे । ( ११० - ११२]
चित्रपट का प्रभाव
उस समय दूर से हमें आशीर्वाद देती हुई एक तपस्वनी वहाँ आ पहुँची । वह वृद्धावस्था के कारण जीर्ण-शीर्ण शरीर वाली और रौद्राकृति की धारक थी । उसे देखते ही कुमार ने उसका स्वागत किया, उसे प्रणाम किया और वार्तालाप द्वारा उसे प्रसन्न किया । प्रसन्नचित्त होकर उस तपस्विनी ने एक कन्या का चित्र कुमार को दिखलाया । चित्र कुमार के हाथ में देकर, वह तपस्विनी सहज विकार और उत्कंठा को छिपाते हुए कुमार के मुख की ओर एकटक देखने लगी, यह जानने के लिए कि चित्र देखकर कुमार के मुख पर क्या भाव प्रकट होते हैं ? चित्र देखकर कुमार के मन पर जोरदार चोट लगी है, उसकी प्रांखों में विकार भाव उभरें हैं और उसका मन चित्र के प्रति विशेष आकर्षित हुआ है, यह देखकर वह 'मैं जा रही हूँ' कहते हुए शीघ्र ही वहाँ से चली गयी । [ ११३ - ११६ ] चित्र में चित्रित कन्या की छवि देखते ही कुमार विकार से ऐसा दिङ्मूढसा हो गया मानो उसे कामदेव ने अपने बाण से विद्ध कर दिया हो । उसकी इस अवस्था को मित्रों ने भांप लिया। क्योंकि, वह कभी तो हूँ शब्द करता, कभी सिर धुनता, कभी नींद में से उठ रहा हो ऐसी प्रवृत्ति करता, कभी चुटकी बजाता, कभी समझ में न आने वाली बातें बोलता कभी गहरा गर्म निःश्वास छोड़ता, कभी हाथ हिलाता, कभी चित्रलिखित कन्या को बार-बार देखता, कभी हंसने जैसा मुंह बनाकर प्रांखें बड़ी-बड़ी करता और कभी पलकें बिना झुकाये ही मन्द मन्द मुस्कान पूर्व स्नेह पूर्ण दृष्टि से इधर उधर देखता । [ ११७-१२० ]
हरिकुमार की ऐसी अवस्था होने पर उसके पास बैठी हुई मित्र - मण्डली उससे कहने लगी
मन्मथ - ( मुंह पर मुस्कान ला कर ) अरे भाई ! हृदयस्थित अनेक प्रकार के भिन्न-भिन्न रसों का अनुभव करते हुए भी, बाहर से इन्द्रियों को या हाथ-पाँव को बिना चलाये ही यह अन्तर्नाद ( अन्तरंग नृत्य ) क्या चल रहा है ?
ऐसा एकदम सीधा प्रश्न
फिर मन्मथ से बोला - अहा !
* पृष्ठ ५५६
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सुनकर हरिकुमार ने अपने आपको संभाला और इस चित्रकार की प्रवीणता को देख कर मैं बहुत
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