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________________ प्रस्ताव ६ : हरिकुमार की विनोद गोष्ठी १३३ ध्यान आया कि रानी के प्रसव का समय निकट आ गया लगता है। फिर मैंने रानी को धैर्य बंधाया और प्रसूति के लिये आवश्यक स्थान की व्यवस्था करने लगी। तभी मेरी स्वामिनी वेदना से व्याकुल होकर पछाड़ खाकर जमीन पर गिर पड़ी और तीव्र करुण स्वर से हाय-हाय करने लगी। तत्काल ही उसने पुत्र को जन्म दिया किन्तु उसी क्षण उस सुकोमल कमलसुन्दरी के प्राण पखेरु भी उड़ गये। ऐसी अप्रत्याशित भयंकर घटना को देखकर मुझ मन्दभागिनी पर तो वज्र ही गिर गया । मैं अत्यन्त भयभीत हो गई, मानो मेरा सर्वनाश हो गया हो ! मुझे मूर्छा पाने लगी, मानो मैं स्वयं भी मर रही होऊँ ! मानो मुझे किसी ग्रह ने ग्रस लिया हो ! इस प्रकार मैं मन्दभाग्य वाली एकदम शून्य हृदय हो गई और मुझे यह भी नहीं सूझ पड़ा कि अब मुझे क्या करना चाहिये ? मैं केवल जोर-जोर से विलाप करने लगी। हे देवि ! तू बोल, मुझ से बात कर। प्रिय सखि ! तू मुझ से बात क्यों नहीं करती ? देख, सुलोचने ! मेरी स्वामिनि ! तूने कितने सुन्दर पुत्र को जन्म दिया है ! हे राजीवनयनि देवि ! जरा अपनी आँख खोल कर अपने सुन्दर पुत्र को तो देख ले ! जिस पुत्र के लिये तूने विशाल राज्य का त्याग किया, प्रिय पति का त्याग किया और महान् दु:ख उठाये, उस पुत्र की तरफ एक बार तो दृष्टिपात कर ले ! अहा ! भाग्य भी हृदय को चीर डालने वाली कैसी-कैसी विचित्र घटनाएं घटित करता है । जिस भाग्य ने ऐसा सुन्दर पुत्र दिया उसी भाग्य ने इस देवी को जमीन पर पछाड़ कर उसके प्राण पखेरु उड़ा दिये । अरे बालक ! तेरी रक्षा करने में तत्पर और ममत्व से लबालब भरी हुई माता का जन्मते ही तूने प्राणहरण कर लिया, यह तो ठीक नहीं किया । अरे पुत्र ! इस बेचारी ने पुत्र-सुख को प्राप्त करने के लिये पति का त्याग किया और राजमहल से बाहर निकली, पर पुत्र ! तूने तो इस बेचारी को उस सुख से भी वंचित कर दिया । [६७-१०१] ___इस प्रकार विलाप करते-करते रात्रि व्यतीत हुई और सूर्योदय हुआ। भाग्य से उस समय उसी मार्ग से कोई सार्थ (बनजारों का समूह) निकल रहा था। इस सार्थ के सार्थवाह ने जब मुझे रोते और विलाप करते देखा तब मुझे धैर्य बंधाया। * उसने विस्मित होकर मुझ से सब घटना पूछी और मैंने संक्षेप में उसे सब बात बतादी। मैंने सार्थवाह से पूछा कि आपका सार्थ किस तरफ जा रहा है ? तब उसने बताया कि उनका सार्थ यहाँ से समुद्र के किनारे तक जाएगा और वहाँ से जहाजों द्वारा रत्नदीप जाएगा । उसका उत्तर सुनकर मैंने विचार किया कि मेरी जानकारी के अनुसार रत्नद्वीप में नीलकण्ठ राजा राज्य करता है जो कमलसुन्दरी का सगा भाई है, अतः यह बालक नीलकण्ठ राजा का भाणेज होता है। इसलिये इस बालक को वहीं ले जाकर इसके मामा को सौंप देना चाहिये जिससे कि वहाँ इसका उचित पालन-पोषण और रक्षण हो सके । अच्छा ही हया कि यह सार्थ मार्ग पृष्ठ ५५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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