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________________ प्रस्ताव ५ : वामदेव का अन्त एवं भव-भ्रमण ११३ ही समझ रही थी और अन्य कथाओं के समान ही उसका मूल्य प्राँक रही थी। श्रोता को वक्ता की बात समझ में आ रही है या नहीं ? यह श्रोता के मुख के भावों से मालूम पड़ जाता है। तदनुसार अगृहीतसंकेता का मुख भी यह बता रहा था कि वह कथा के गूढ़ रहस्य को नहीं समझ रही है ।] [७२३] सदागम का गाम्भीर्य __ भगवान् सदागम तो संसारी जीव के समस्त वृत्तान्त को पहले से ही जानते थे, अत: वे उसके आत्मवृत्त को सुनते हुए मौन ही रहे। [सदागम अर्थात् शुद्धज्ञान, उसका विषय तो जानना ही होता है, उससे कोई बात कैसे छिपी रह सकती है ? मात्र उपयोग लगाते ही उसे सब ज्ञात हो जाता है । सदागम का मौन अर्थसूचक था और उनके मुख की गम्भीरता उनके हृदय की गहनता को प्रकट करती थी।] [७२४] ___ संसारी जीव ने अपनी आत्मकथा को आगे बढ़ाते हुए कहा-हे अगहीतसंकेता! एक समय मेरी पत्नी भवितव्यता मुझ पर प्रसन्न हुई और मेरे किसी शुभ कर्म के कारण मुझ पर कृपालु होकर कहने लगी आर्यपुत्र ! अब तुम्हें लोकविश्रु त अानन्द नगर जाना है और वहाँ अानन्दपूर्वक रहना है। मैंने कहा-देवि ! आपकी इच्छानुसार करना में अपना निश्चित कर्त्तव्य मानता हूँ, जैसी आपकी आज्ञा। ___ भवितव्यता ने उस समय मुझे अपना वास्तविक सच्चा पुण्योदय मित्र वापस सौंपा और एक अन्य सागर नामक मित्र भी मेरी सहायता के लिये मुझे दिया। मेरी बुद्धिमती पत्नी समझ गई होगी कि अब मझे सागर मित्र की अवश्य ही आवश्यकता पड़ेगी । सागर को मुझे सौंपते हुए उसने कहा- आर्यपुत्र ! यह तेरा मित्र सागर रागकेसरी राजा और मूढता रानी का प्रिय पुत्र है। मैंने ऐसी व्यवस्था की है कि अब यह तुम्हारी सम्यक् प्रकार से सहायता करेगा। [७२५-७२६] भवितव्यता ने मुझे नयी गुटिका प्रदान की जिसके प्रभाव से मैं अपने अंतरंग मित्र पुण्योदय और सागर के साथ प्रानन्दनगर के लिये प्रस्थान करने की तैयारी करने लगा। [७३०] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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