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________________ ११२ उपमिति-भव-प्रपंच कथा अनेकों तथा भिन्न-भिन्न स्थानों में अनन्त दुःख भोगते हुए भटकना। इसने यह भी बतलाया कि उसी की स्त्री भवितव्यता उसे अनन्त काल तक अनेक स्थानों में भटकाती रही। उसी ने लीला से उससे नन्दीवर्धन में रिपुदारण और वामदेव के नाम से रूप धारण करवाये । प्रत्येक भव के मध्य में अनन्त काल व्यतीत हुआ, जिसके अन्तराल में उसकी भार्या ने उससे अनेक नाटक करवाये, नये-नये रूप धारण करवाये, नाच नचवाये और असहनीय दुःख सहन करवाये। अधिक आश्चर्यजनक और विचित्र बात तो यह है कि ये सारे प्रयोग उसको गोलियाँ खिलाकर किये गये। इन गोलियों की इतनी अधिक शक्ति कैसे रही होगी? फिर उसकी पत्नी ने ही उसे ये गोलियां खिलाईं और इतने नाच नचवाये, यह बात तो लोक-विरुद्ध एवं कल्पित. सी लगती है और मुझे तो कुछ समझ में नहीं आती। [७०३-७१२] ___क्या यह तस्कर पुरुष अनन्तकाल तक इसी स्थिति में रहेगा ? या आगे जाकर यह भविष्य में कभी अजर-अमर भी बन सकेगा ? हन्त ! यह कालस्थिति कौन है ? यह भवितव्यता नामक स्त्री कौन है ? यह अपने पति को ही इस प्रकार भटकाती है, यह तो पूर्णतया प्रतिकूल और नयी बात ही है । यह स्त्री अपने पति को बार-बार महा शक्तिशाली गोलियां तैयार करके देती है। इन गोलियों के प्रभाव से यह प्राणी वही होने पर भी अनन्त प्रकार के रूप धारण करता है । ये गोलियाँ कैसी हैं ? और भवितव्यता कैसे उन्हें अपने पति को देती है ? [७१३-७१५] इस कथा में अनेक नगर, अन्तरंग मित्र, स्वजन-सम्बन्धी आदि के नाम आये हैं, वे कौन थे ? इसका मैं निश्चय नहीं कर पा रहा हूँ। मुझे तो लगता है, यह संसारी जीव निद्रा में अनुभूत स्वप्न की कोई कथा सुना रहा है । अथवा किसी सिद्ध पुरुष द्वारा फैलाये हुए इन्द्रजाल जैसी यह कपोल-कल्पित कथा है । मानो किसी प्रतिभाशाली पुरुष ने अपनी कल्पना से लोकरंजन के लिए इस अद्भुत चरित्र की रचना की हो ! यह जो प्रज्ञाविशाला सन्मुख बैठी हुई है इसकी मुखाकृति से तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह समस्त वार्ता को हृदयंगम कर चुकी है। इस प्रज्ञाविशाला ने पहले भी मुझे संसारी जीव का चरित्र बतलाया था, किन्तु अभी मैं उसे भूल चुका हूँ । यदि अभी बीच में ही मैं कुछ पूछगा तो मेरा पूछना अप्रासंगिक होगा और अगृहीतसंकेता आदि अन्य लोग जो यहाँ बैठे हैं, मुझे मूर्ख समझेंगे।* अतः अभी तो मैं चुप बैठकर इस तस्कर संसारी जीव की बात सुनता रहूँ, बाद में जब प्रज्ञाविशाला मुझे एकान्त में मिलेगी तब उससे इसका रहस्य पूछ लूगा । यह सोचकर भव्यपुरुष संसारी जीव की कथा सुनता हुआ चुपचाप बैठा रहा । [७१६-७२२] अगृहीतसंकेता इस कथा को सुनकर विस्मित हो रही थी और बार-बार संसारी जीव के मुख की ओर देख रही थी, जिससे प्रतीत हो रहा था कि वह इस कथा के रहस्य को नहीं समझ पा रही है। [वह इस वास्तविकता को मात्र कथा • पृष्ठ ५४८ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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