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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
सरल सेठ ने राजाज्ञा को शिरोधार्य किया। मैं अन्य लोगों द्वारा तिरस्कृत होता हसा दीन-हीन की भाँति राजमहल में रहने लगा। मेरे अन्तरंग भाई-बहिन स्तेय और बहुलिका यद्यपि मेरे शरीर में ही निवास कर रहे थे तथापि भीषण राज्यदण्ड के भय से वे अपना प्रभाव नहीं दिखा रहे थे। ऐसा लगता था जैसे वे अन्दर ही अन्दर शांत हो गये हों। भद्रे ! फिर भी लोग तो मुझे शंका की दृष्टि से ही देखते थे और अन्य किसी के चोरी करने पर भी मुझ पर संदेह करते थे। मेरे सच कहने पर भी लोग उसे नहीं मानते। मेरे वचन पर लोगों को विश्वास ही नहीं रहा । लोग मुझे धिक्कार की दृष्टि से देखते हुए कहते-बैठ जा, देख ली तेरी सत्यवादिता ! जिस प्रकार काला सर्प दूसरे सभी सांपों के लिये संताप का कारण होता है उसी प्रकार मैं भी सबके उद्वेग का कारण हो गया था। हे अगृहीतसंकेता ! ऐसे संयोगों में बहुत समय तक रहकर मैं अनेक प्रकार की विडम्बनायें भोगता रहा।
[६७६-६८३] __हे भद्रे ! एक बार किसी विद्यासिद्ध ने राजा के भण्डार में चोरी की और उसमें से सभी रत्न अलंकार आदि ले गया। विद्या के बल से वह अदृश्य होकर भीतर घुसा था और अदृश्य होकर ही वापस निकल गया था, इसलिये पकड़ा नहीं गया। उस चोरी का कलंक मेरे सिर पर आया ।* सब को याद था कि मैंने पहले भी चोरी की थी और राजमहल में मेरे सिवाय किसी का प्रवेश असंभव था, अत: संदेह के आधार पर मैं पकड़ा गया । अपराध मंजूर करवाने के लिए मुझे बहुत मारा और अनेक प्रकार की यातनायें दीं। राजा भी अत्यन्त क्रोधित होकर मुझे अनेक प्रकार से सताने लगा और अन्त में मुझे मृत्युदण्ड दे दिया गया। हे विशालाक्षि ! इस बार भी सरल सेठ ने आकर मुझे बचाने का बहुत प्रयत्न किया पर राजा नहीं माना और मुझे रोते-चिल्लाते एवं विलाप करते हुए को फांसी के तख्ते पर चढ़ा दिया गया। [६८४-६८७] संसारी जीव का पुन: भव-भ्रमण
जिस समय मुझे मृत्यु-दण्ड दिया गया उसी समय मेरी स्त्री भवितव्यता द्वारा पूर्व में दी गई गोली जीर्ण हो गई थी, अत: उसने मुझे दूसरी नवीन गुटिका दी जिसके प्रभाव से हे भद्रे ! मैं पापिष्ठवास नामक नगर के अन्तिम उपनगर पापपिजर (सातवीं नरक) में उत्पन्न हुआ। यह स्थान अनन्त तीव्र दुःखसमूह से व्याप्त था । वहाँ मैंने असंख्यात काल तक अनेक प्रकार के महा दारुण दु:ख सहे। उसके बाद भवितव्यता ने मुझे पुनः दूसरी गोली दी जिसके प्रभाव से मैं पंचाक्षपशु संस्थान (पंचेन्द्रिय तिर्यंच गति) में आया। इस प्रकार नयी-नयी गुटिकायें देकर भवितव्यता ने मुझे अन्य अनेक स्थानों पर भटकाया। हे भद्रे ! हे सुलोचने ! असंव्यवहार नगर के अतिरिक्त कोई स्थान नहीं बचा जहाँ मैं कई-कई बार नहीं
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