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प्रस्ताव ५ : वामदेव का अन्त एवं भ्रव-भ्रमण
मेरी बनावटी बात सुनकर चौकीदार लोग जो वहीं थे, सोचने लगे कि यह वामदेव वास्तव में दुरात्मा है, हरामखोर है, पक्का चोर है । अहो इसका वाक्जाल ! * वाचालता ! धूर्तता ! कृतघ्नता ! विश्वासघात ! और पापिष्ठता ! उन्होंने सेठजी को आश्वासन दिया कि सेठ साहब ! आप मन में तनिक भी चिन्ता न करें, आश्वस्त हो जावें, हमें चोर का पता लग गया है।
___ इस प्रकार कहकर उन्होंने मेरी तरफ अर्थ-पूर्ण दृष्टि घुमाई जिससे मैं भयभीत हो गया । मैंने मन में समझ लिया कि चौकीदारों ने मुझे पहचान लिया है। चौकीदारों ने मुझे माल सहित रंगे हाथों पकड़ने का निश्चय किया और मेरे पीछे कुछ गुप्तचरों को लगा दिया। उस पूरे दिन मेरे मन में संकल्प-विकल्प आते रहे । सन्ध्याकालीन अन्धेरा होते ही मैं दुकान के पीछे गया और छुपाये हुये रत्न निकाले । ज्योंही मैं रत्न लेकर भागने को हुआ कि चौकीदारों ने मुझे माल सहित पकड़ लिया। हो-हल्ला होने से नगर के लोग पुन: वहाँ इकट्ठ हो गये । चौकीदारों ने मेरी सारी चालाकी लोगों के सामने प्रकट कर दी। लोगों को यह सुनकर बहुत
आश्चर्य हुआ कि सेठ ने जिसे अपना पुत्र मान कर सारा धन उसे देने का निश्चय किया था, उसी ने विश्वासघात कर अपने ही घर में चोरी की।
चौकीदार मुझे नगर के राजा रिपुसूदन के पास ले गये । चोरी की सजा मृत्युदण्ड थी और मैं तो माल सहित पकड़ा गया था, अत: राजा ने मेरा वध करने की आज्ञा दे दी।
जब सरल सेठ को पता लगा तो वे दौड़े हुये राजा के पास आये और राजा के पाँव पकड़कर कहा--
देव ! यह वामदेव मेरा पुत्र है, उसके प्रति मेरा अत्यन्त स्नेह है, इसके बिना मैं जीवित नहीं रह सकूँगा, अतः मुझ पर अनुग्रह/दया कर इस बालक को छोड़ दीजिये । आप चाहे मेरा सारा धन ले लीजिये, अन्यथा इसके अभाव में मैं मर जाऊँगा इसमें संशय नहीं है । [६७३-६७४]
। राजा ने सोचा कि सरल सेठ वास्तव में सरल ही है, बहुत भोला है। राजा ने दयाकर मृत्युदण्ड की आज्ञा को निरस्त कर दिया और सेठ का धन भी ग्रहरण नहीं किया। किन्तु, उन्होंने सेठ को कहा---सेठ ! इस तुम्हारे सुपुत्र को मेरे पास रखो । यह विषांकूर है, पक्का चोर है और लोगों को दुःख देने वाला है, अतः इसको अरक्षित/मुक्त छोड़ना उचित नहीं है। [६७५-६७७]
इधर मेरा पुण्योदय मित्र जो जन्म से ही मेरे साथ था और दिनोंदिन दुर्बल हो रहा था, अब एकदम नष्टप्रायः हो गया था और मुझे छोड़कर चला गया था, क्योंकि मेरा ऐसा दुश्चरित्र देखकर वह मुझसे ऊब गया था। [६७८]
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