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________________ २१. वामदेव का पलायन वामदेव के भव में संसारी जीव अपनी आत्मकथा सदागम के समक्ष सुनाते हुए कह रहा है---हे अगृहीतसंकेता ! इस सम्पूर्ण घटना के घटित होने के समय मैं तो वहाँ वामदेव के रूप में उपस्थित ही था। प्राचार्य की रूप-परिवर्तन की शक्ति, वास्तविकता को समझकर उसे प्रकट करने का कौशल, अपने कथन को रूपक द्वारा समझाने का चातुर्य और महामोह के अन्धकार को दूर करने वाले प्रवचनों को सुनकर भी मैं लेशमात्र भी प्रबुद्ध नहीं हुआ, मेरे मन पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा और मुझे उनका कथन तनिक भी रुचिकर नहीं लगा । इसका क्या कारण था ? यह भी तू सुन । तुझे याद होगा कि पहले बहुलिका योगिनी (माया) मेरी बहिन बनी हुई थी, उस बहिन ने योगशक्ति से मेरे शरीर में प्रवेश कर लिया था और मुझ पर अपना अधिकार जमा लिया था। प्राचार्य के पास आने के समय भी वह मेरे शरीर में उल्लसित हो रही थी। [६४३-६४५] हे अगहीतसंकेता ! ऐसे अत्यन्त दयालु, परोपकारी, कुशल, प्रतापी, महाभाग्यवान और विशुद्ध जीवन वाले महापुरुष महात्मा आचार्य को मुझ दुरात्मा ने इस बलिका की शिक्षा में पाकर वंचक और ढोंगी माना। मैंने माना कि यह साधु के वेष में कोई पाखण्डी पाया है जो अपनी इन्द्रजाल जैसी रचना कर झूठी चतुरता से सब लोगों को ठग रहा है । देखो, इसकी दुष्टता और ठग विद्या को ! इसने कैसा युक्तियुक्त जाल फैलाया है ! इसका वाक्चातुर्य कितना महान् है कि राजा और उसके सभासद भी मूर्ख बन गये हैं ! बात ऐसी है कि जो दुरात्मा प्राणी इस बहुलिका के वशीभूत हो जाता है वह स्वयं शठाधम बनकर सारे संसार को धूर्त समझने लगता है । मैंने भी अनेक सच्ची झूठी कल्पनाओं के द्वारा उस समय बुधाचार्य को धूर्त माना, फलस्वरूप उनके विशुद्ध प्रवचनों का मुझ क्षुद्र पर कोई असर नहीं हुआ। [६४६-६५०] इधर नगर में महोत्सव हो रहा था, दीक्षा का समय निकट आ रहा था। उस समय मुझ पापी ने विचार किया कि मेरा मित्र विमल आग्रह करके बलपूर्वक मुझे अवश्य ही दीक्षा दिलवायेगा, अतः उसके आग्रह करने के पहले ही मैं यहाँ से कहीं भाग जाऊं तो अच्छा रहेगा। हे चपलनेत्रा ! इस विचार से मैं मुट्ठी बाँधकर, भागकर वहाँ से इतनी दूर चला गया कि ढूढ़ने पर भी मेरी गन्ध न मिल सके। । ६५१-६५३] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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