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________________ १०४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा दिया है। हम सब मिथ्यात्व के विष में झोंके खा रहे थे, पर महात्मा ने अमृतसिंचन कर हमें जीवनदान दिया है। प्राचार्यदेव के वचन हमारे चित्त में गहराई से उतरे हैं, अतः गुरुदेव के आदेश का हमें अविलम्ब पालन करना चाहिए। [६२६-६३२] समस्त सभाजनों के ऐसे प्रशस्त उत्तर को सुनकर धवल राजा अति प्रसन्न हुए। राजा के मन का आशय सभाजन जानते थे और सभाजनों के मन का आशय राजा ने जान लिया था । चिन्तित कार्य को कार्यान्वित करने के पूर्व किसी का राजसिंहासन पर राज्याभिषेक करना आवश्यक था। राजा का विचार विमलकुमार को राजगद्दी देने का था, अतः उन्होंने विमल से कहा--पुत्र ! मेरा विचार दीक्षा लेने का है, अब तुम राज्य का सम्यक् प्रकार से पालन करो । बड़े पुण्योदय से मुझे आज श्रेष्ठतम सद्गुरु का योग मिला है। [६३३-६३४] विमल-पिताजी ! यदि मैं पापका प्रिय पुत्र हूँ तब आप मुझे दुःखों से परिपूर्ण राज्य पर स्थापित करने की इच्छा क्यों करते हैं ? इससे लगता है कि आपका मुझ पर सच्चा स्नेह नहीं है। पिताजी ! आप मुझे दुःखपूरित संसार में फेंककर स्वयं मुक्तिमार्ग की ओर प्रयाण करना चाहते हैं तो आपके ये विचार श्रेष्ठ नहीं माने जा सकते। विमलकुमार के वचनों को सुनकर तत्त्वदर्शी धवल राजा को प्रसन्नता हुई, वे बोले-पुत्र ! तेरे विचार सुन्दर हैं और अवसर के योग्य हैं। यदि तेरी भी यही इच्छा है तो हम तुझे छोड़कर नहीं जायेंगे। [६३५-६३७] । तदनन्तर धवल राजा ने अपने दूसरे पुत्र कमल का राज्याभिषेक किया ।* फिर आठ दिन तक अत्यधिक धूमधाम से जिन पूजा की, अष्टाह्निका महोत्सव किया, पूरे देश और नगर में अनेक दीन-दुःखी याचकों को विधिपूर्वक अनेक वस्तुओं का प्रचर दान दिया और अवसरोचित समस्त कर्तव्य पूर्ण कर शुभ दिन में अपनी रानी, पुत्र विमलकुमार, बन्धुजनों एवं कई नगरवासियों सहित बुधसूरि महाराज के पास विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण करने हेतु नगर से बाहर निकला । विशेष क्या कहूँ ? उस दिन बधसूरि का अमृतमय प्रवचन जितने लोगों ने सुना था उनमें से बहुत ही थोड़े लोगो ने दीक्षा नहीं ली । जिन थोड़े से लोगों ने चारित्र ग्रहण नहीं किया उन्होंने सम्यक्त्व सहित श्रावक के बारह व्रतों को अंगीकार किया । सच ही है, रत्नों की खान के पास जाकर कौन दरिद्री रह सकता है ? [६३८-६४२] * पृष्ठ ५४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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