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________________ ७४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा मैत्री सन्दरी मनोभीप्सित अनुकूल आचरण करती है, करुणा सुन्दरी प्रति समय वात्सल्य भाव रखती है, मुदिता सुन्दरी सतत आनन्द प्रदान करती है और उपेक्षा सुन्दरी समस्त प्रकार के उद्वेगों का नाश करती है। हे नरेश्वर ! अत्यन्त प्रिय एवं प्रगाढ़ अनुरागिणी इन ग्यारह सून्दरियों में प्रेमासक्त (धैर्यादि आन्तरिक गुणों में दृढ़ासक्त) होकर ये मुनीन्द्र सर्वदा ग्रामोदप्रमोद करते हैं, अर्थात् प्रमुदित रहते हैं। इन्हीं सुन्दरियों (आन्तरिक गुणों) के सम्पर्क से ये श्रमणगण स्वयं की आत्मा को संसार-सागर से पार और निर्वाणसुख-समुद्र में डूबा हुअा मानते हैं। (यह तो अनुभव सिद्ध और शास्त्र प्रसिद्ध ही है कि) शान्त चित्त वाले विशुद्ध ध्यानी मुनियों को जो सुख प्राप्त होता है वैसा सुख देवों को, इन्द्र को या चक्रवर्ती को भी प्राप्त नहीं हो सकता। जो महात्मागण अपने देह रूपी पिंजरे में भी पराया हो इस भाव से रहते हैं, उन्हें कैसा सुख मिलता है, यह पूछने का साहस ही कौन कर सकता है ? संसार-गोचरातीत जिस सुख की अनुभूति वे करते हैं उस आनन्द रस के स्वरूप को वे ही जान सकते हैं, अन्य प्राणो नहीं। ऐसी परिस्थिति में भी जब कि मैं सुख-पूरित हूँ तब भी वस्तुतत्त्व के पारमार्थिक रहस्य को समझे बिना लोगों ने मुझे दुःखी कहकर मेरी जो निन्दा की है, वह व्यर्थ है। स्वयं दुःखी होते हुए भी तुम सब लोग झूठे सुख के अभिमान में विचित्र नाटक कर रहे हो, किन्तु हे राजेन्द्र ! वास्तविक पारमार्थिक सुख क्या है ? कहाँ है ? कैसे मिलता है ? यह कोई नहीं जानता और न समझने की कोई चेष्टा ही करता है। [२५६-२६२] . . १५. बठरगुरु कथा [सदागम के समक्ष संसारी जीव वामदेव अपनी आत्मकथा को आगे सुनाते हुए कहता है कि दरिद्री के वेष में उपस्थित बुधाचार्य अपनी बुलन्द आवाज में मेरे मित्र विमल के पिता धवल राजा को जब उपरोक्त विवेचन सूना रहे थे तब राजा के मन में एक शंका उठी और उन्होंने प्राचार्य से पूछा । । धवल राजा का प्रश्न : प्राचार्य का समाधान भगवन् ! आपके कथनानुसार जब विषयों में दुःख और समभाव में ही सब से उत्तम सूख है तब सब लोग उसे समझ कर भी बोध को क्यों नहीं प्राप्त करते ? [२६३] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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