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प्रस्ताव ५ : पारमार्थिक प्रानन्द
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तरह से निष्पादित कोमल स्वादिष्ट और मनोनुकूल विशिष्ट प्रकार का भोजन करते हैं, कपूर, अगरु, कस्तूरी, पारिजात, मंदार, नमेरु, हरि-चन्दन, संतानक के फूलों को और अग्निपुट द्वारा निर्मित सुगन्धित पदार्थों की सुगन्ध लेते हैं, ललित ललनाओं का कोमल शैया पर आनन्द से स्पर्श करते हैं, आलिंगन करते हैं, प्रेमी मित्रों के संग आनन्द करते हैं, सुन्दर वन वाटिका में विलास करते हैं, मनोवांछित चेष्टायें और क्रीड़ायें करते हैं, वर्णनातीत विषय-वासना-रस में आकंठ डूबे रहते हैं, रसासक्ति के अभिमान में अांखें भी मदी (निमीलित) रहती हैं तथापि उन प्राणियों का यह सुखानुभव मात्र क्लेश रूप और निरर्थक ही है । हे राजन् ! मैंने प्रारम्भ में जो विविध प्रकार के दु:खों के सैकड़ों कारण बतायें हैं उनसे तो यह संसारी प्राणी निरन्तर घिरा ही रहता है, फिर सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? मानसिक शांति कैसे मिल सकती है ?
इस प्रकार की परिस्थिति में भी, दुःखों से पाकण्ठ डूबा हुआ होने पर भी प्राणी मोह के कारण अपने को सुखी मानता है । हे भूप ! उसका यह सुख शिकारियों द्वारा शक्ति, नाराच (बारण), तोमर (भाला) से आहत होने पर त्रस्त हरिण को जैसा सुख प्रतीत होता है वैसा ही संसारी प्राणियों का सुख है। अथवा उसका यह सुख प्राटा लगे कांटे में फंसी हुई तालुविद्ध मर्ख मछली का सुख ही है जो पाटा खाने के लोभ में अपने प्राण गंवाती है । हे नरेन्द्र ! विशुद्ध धर्मरहित प्राणियों के मस्तक दुःख-संघात में इतने विदीर्ण रहते हैं मानो वे महादुःखी नारकीय जीव ही हों, अर्थात् वास्तविक सुख की तो गन्ध भी उनके पास नहीं फटकती।
[२५२-२५५] साधुत्रों के पारमार्थिक प्रानन्द
हे राजन् ! श्रेष्ठ मुनिपूगवों को उपरोक्त सभी क्षद्र उपद्रव कदापि बाधित उत्पीडित नहीं करते हैं, क्योंकि उनका मोहान्धकार नष्ट हो जाता है और उन्हें सम्यक् ज्ञान (विशुद्ध सत्य ज्ञान) की प्राप्ति हो जाती है। किसी भी विषय का कदाग्रह (झूठा आग्रह) करने की प्रवृत्ति से वे निवृत्त हो जाते हैं। संतोषामृत उनकी रग-रग में व्याप्त रहता है। वे किसी भी प्रकार का अनैतिक आचरण नहीं करते जिससे उनकी भव-बेल सूख कर टूट जाती है । धर्म मेघ रूपी समाधि स्थिर हो जाती है और उनका अन्तरंग अन्त:पुर (आन्तरिक गुण) उनके प्रति अधिकाधिक अनुरक्त होता है।
मुनिपुंगवों के अन्तरंग अन्तःपुर (११ पत्नियों) का वर्णन भी सुनिये___ इन श्रमण वृन्दों को धृति सुन्दरी सन्तोष प्रदान करती है, * श्रद्धा सुन्दरी चित्त को प्रसन्न रखती है, सुखासिका सुन्दरी आह्लादित करती है, विविदिषा सन्दरी शान्ति का प्रसार करती है, विज्ञप्ति सुन्दरी प्रमोद प्रदान करती है, मेधा सन्दरी सद्बोध प्रदान करती है, अनुप्रेक्षा सुन्दरी हर्षोल्लास का कारण भूत बनती है, • पृष्ठ ५१७
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