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________________ ५८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा विमल सुखसागर में डुबकी लगाता हुआ दिखाई दिया । एक दिन दीन-दुःखियों को ढूढ़ कर लाने गये हुए कई राजपुरुष हिमभवन में प्रविष्ट हुए और राजा के सामने पर्दा लगाकर उन्होंने पर्दे के पीछे एक पुरुष को बिठाया। फिर सामने आकर महाराजा को प्रणाम करते हुए बोले -'महाराज ! आपकी आज्ञा से हम दीन दुःखियों को ढूढ़ते हुए घूम रहे थे कि हमें एक अत्यन्त दुःखी पुरुष दिखाई दिया, जिसे हम आपके पास यहाँ ले आये हैं। यह पुरुष अत्यन्त घृणा उत्पन्न करने वाला होने से आपके दर्शन के योग्य नहीं है इसलिये हमने इसे पर्दे के पीछे रखा है। अब इसके विषय में आपका जैसा निर्देश हो वैसा करें।' यह सुनकर धवल राजा ने पूछा'भद्रो ! तुमने उसे कहाँ देखा और वह किस प्रकार एवं किस कारण से अत्यन्त दुःखी है ? घटना और कारण बतायो।' महाराजा के प्रश्न को सनकर राजपुरुषों में से एक ने हाथ जोड़ कर कहा ---देव ! आपकी आज्ञानुसार दुःख और दरिद्रता से उत्पीड़ित लोगों को ढूढ़कर लाने के लिये हम गये हुए थे । अपने नगर में तो हमने सब को सुखी और आनन्दमग्न देखा, अतः हम जंगल में गये । वहाँ दूर से हमने इस पुरुष को देखा । उस समय मध्याह्न का समय था, पृथ्वीतल अग्नि की भांति तप रहा था । तप्त लोहपिण्ड के समान सूर्य आग का गोला बनकर जगत को तापित कर रहा था । ऐसे समय में अग्नि के समान जलती रेत में इस पुरुष को हमने बिना जूतों के उघाड़े पैर चलते देखा । [८२-८३] * हमने सोचा कि यह व्यक्ति अत्यन्त दुःखी होना चाहिये, अन्यथा ऐसे समय में नंगे पैर क्यों चलता ? हमने दूर से ही आवाज देकर उसे बुलाया--'अरे भाई ! ठहरो ! ठहरो! !'हमारी आवाज के उत्तर में वह बोला-'भाइयों ! मैं तो खड़ा ही हूँ, तुम्हीं सब ठहरो।' ऐसा कह कर वह चलने लगा। मैं शीघ्रता से दौड़कर उसके पास गया और बड़ी कठिनाई से बलपूर्वक उसे पकड़ कर एक वृक्ष के नीचे लाया। अनन्तर समस्त राजभृत्य इसका वर्णन करते हुए कहने लगे ---इसके शरीर का रंग भयंकर दावाग्नि से जले हुए वृक्ष के ठठ जैसा काला था, भूख से उसका पेट अन्दर जा रहा था, होठ प्यास से सूख गये थे, यात्रा की थकान उसके शरीर पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी, इसके शरीर पर अत्यधिक पसीना हो रहा था मानो भयंकर अन्तस्ताप से जल रहा हो, शरीर से कोढ गल रहा था, शरीर पर बने कृमियों के जालों से वह अत्यन्त व्याधिग्रस्त लगता था, मुख की भावभंगी से हृदयशूल की वेदना से ग्रसित लगता था, अंग-प्रत्यंग हिल रहे थे और शरीर पर वृद्धावस्था के चिह्न स्पष्ट दिखाई दे रहे थे, गहरी और गर्म स्वांस छोड़ रहा था मानो महाज्वर से ग्रसित हो, आँखों में चेप और मैल जम रहा था और आँखों से सतत पानी बह रहा था, नाक चिपक गया था, हाथ-पैर लगभग सड़ गये थे, सिर गंजा हो रहा था मानो अभी लोच किया हो, शरीर पर अत्यन्त मैले वस्त्र का टुकड़ा और एक कम्बल था, हाथ में * पृष्ठ ५०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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