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________________ प्रस्ताव ५ : विमल का उत्थान : गुरु-तत्त्व-परिचय हो गया और मेरा पूरा परिवार भी इन आचार्य भगवान के दर्शन से अहद धर्म में स्थिर हो गया । भगवान् को वन्दना कर मैं अपने स्थान पर गया और आचार्यश्री भी वहाँ से* अन्यत्र विहार कर गये । यह घटना गत अष्टमी की है । भाई विमल ! मैं इसीलिये कह रहा था कि यदि महात्मा बुध आचार्य किसी प्रकार यहाँ पधार जायें तो तुम्हारे परिवार और बन्धुत्रों को वे अवश्य ही प्रतिबोध दे सकते हैं। इन आचार्य भगवन्तों को तो दूसरों पर उपकार करने का व्यसन ही है। इसीलिये उन्होंने उस दिन मुझे और मेरे परिवार को धर्म में स्थिर करने के लिये दो बार भिन्न-भिन्न वैक्रिय रूप धारण किया था। विमल-आर्य ! तब तो इन महात्मा को यहाँ पधारने के लिये आप अवश्य ही अभ्यर्थना करना। रत्नचूड-जैसी कुमार की आज्ञा । अभी तो मेरे वियोग से मेरे पिता व्याकुल हो रहें होंगे और मेरी माता तो पागल हो गई होगी, इसलिये उनके मन को शान्ति देने के लिये उनके पास जाना होगा। फिर तुम्हारी आज्ञानुसार सब व्यवस्था करूगा। इस विषय में अब तुमको मन में किंचित् भी संकल्प-विकल्प करने की आवश्यकता नहीं है। सज्जन से बिछोह विमल-आर्य रत्नचूड ! क्या आपको जाना ही पड़ेगा ? रत्नचूड-कुमार! आपकी संगति-रूप अमृतरस का आस्वादन करने के पश्चात् जाने की बात तो मेरे मुह से निकल ही नहीं सकती। सज्जन की दृष्टि से जड़ (मूर्ख) भी सन्तोष प्राप्त करता है। जैसे चन्द्र के उदय होने पर उसके दर्शन से कुमुद विकसित हो जाता है वैसे ही उस जड़ प्राणी को भो क्षणभर में सज्जन पर इतनी प्रीति हो जाती है कि वह जीवित रहते हुए उस सज्जन को छोड़कर अन्यत्र किसी स्थान पर नहीं जाता । अनन्त दु:खों से परिपूर्ण इस संसार में अमृत के समान यदि कुछ भी है तो वह सज्जन पुरुष के साथ हृदय-मिलन ही है, ऐसा मनीषियों का कथन है। इस संसार में विरह रूपी मुद्गर न हो तो सज्जन की संगति जैसी अमूल्य वस्तु के दो टुकड़े करने (भग करने) में कोई भी पदार्थ समर्थ हो ही नहीं सकता । जो प्राणी एक बार सज्जन पुरुष को प्राप्त कर उसे छोड़ देता है, वह मूर्ख चिन्तामणिरत्न, अमृत या कल्पवृक्ष को प्राप्त कर उसे छोड़ रहा है, ऐसा समझना चाहिये । हे कुमार ! तेरे विरह के त्रास से जाने की बात कहने से ही मेरी जीभ तालु से चिपक रही है। 'मुझे यहाँ से जाना है' ऐसे शब्द मैं आपके सन्मूख किसी प्रकार बोल भी नहीं सकता । अरे ! आपके सन्मुख ऐसा कहना तो मुझे वास्तव में वज्राग्नि के समान अत्यन्त निष्ठुर लगता है। अरे ! ये शब्द तो मेरे मुख से निकल पृ० ४६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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