________________
३८
उपमिति-भव-प्रपंच कथा
नता भी क्या है ? मेरे धर्मगुरु सिद्धपुत्र चन्दन ने मुझे बताया था कि श्रेष्ठ साधु अनेक प्रकार की लब्धियों के धारक होते हैं और लब्धियों के प्रभाव से वे स्वेच्छानुसार अपना रूप विविध प्रकार का बना सकते हैं। वे परमाणु जैसे सूक्ष्म या पर्वत सदृश विशाल और अर्क (आकड़े) की रूई के समान हल्के-फुल्के लघु भी बन जाते हैं । वे देह को विस्तारित कर विश्व में व्याप्त हो सकते हैं, देवेन्द्र को किंकर के समान आज्ञा दे सकते हैं, कठोर से कठोर शिलातल में डुबकी लगा सकते हैं, एक घड़े में हजारों घड़े दिखा सकते हैं और एक वस्त्र से सहस्रों वस्त्र दिखा सकते हैं। वे मात्र, कान से ही नहीं अपितु शरीर के किसी भी अंगोपांग से सुन सकते हैं, स्पर्श मात्र से समस्त रोगों को दूर कर सकते हैं और गगनतल में पवन की भांति विचरण कर सकते हैं । इन लब्धिधारक सिद्ध-साधुओं के लिये कुछ भी अशक्य नहीं है। लब्धि द्वारा वे ऐसे विविध कार्य करने में पटु होते हैं। इन आचार्य भगवान् को जब मैंने पहले देखा था तब वे कुरूप थे और अब अत्यन्त स्वरूपवान एवं सुडौल दिखाई देते हैं, इससे लगता है कि वे अतिशय लब्धिधारी हैं।
गुरु-परिचय
उपरोक्त विचार करते-करते प्रहष्टचित्त होकर मैंने प्राचार्य महाराज को वन्दन किया और अन्य मुनियों को भी मैंने नमन किया। उन्होंने भी मुझे स्वर्ग और मोक्षमार्ग के साधनभूत 'धर्मलाभ' रूपी आशीर्वाद दिया । शुद्ध भूतल पर बैठकर मैं आचार्यदेव की अमृतोपम धर्मदेशना सुनने लगा। उनकी यह धर्मदेशना भव्य प्राणियों के मन को आकर्षित करने वाली, विषयाभिलाषाओं में विक्षेप डालने वाली, मोक्ष-प्राप्ति की अभिलाषा उत्पन्न करने वाली, संसार-प्रपंच पर निर्वेद (वैराग्य) जागृत करने वाली और जीव को कुमार्ग पर जाने से रोकने वाली थी। आचार्यश्री के ऐसे अद्वितीय उपदेश को सुनकर मैं उनके गुणों से गद्गद् हो गया । फिर मैंने निकट बैठे हुए एक शान्तमूर्ति मुनिराज से पूछा- ये भगवान् कौन हैं ? इनका नाम क्या है ? ये कहाँ के हैं ? मेरे प्रश्नों के उत्तर में मुनिराज बोले- ये भगवान् हमारे गुरुदेव हैं । इनका नाम आचार्य बुध है । ये धरातल नगर के राजा शुभविपाक और निजसाधुता रानी के पुत्र हैं। राज्य वैभव को तृणतुल्य समझकर इन्होंने उसका त्याग कर दिया और श्रमण बन गये । अधुना अनेक स्थानों पर अप्रतिबद्ध विहार करते हुए प्राचार्य भगवान् भिन्न-भिन्न स्थानों पर विचरण कर रहे हैं।
भाई विमल ! बधाचार्य के सम्बन्ध में सुनकर, उनके अतिशय की महिमा प्रत्यक्ष देखकर, उनके अद्भुत सुन्दर रूप को देखकर और उनके धर्मदेशना-कौशल का अनुभव कर मैंने सोचा कि अहो ! आज तो आदिनाथ भगवान के दर्शन कर वस्तुतः रत्नाकर के दर्शन ही किये हैं, क्योंकि ऐसे-ऐसे पुरुष-रत्न भी यहाँ मिल जाते हैं । इस विचार से मैं भगवान् अर्हत् प्रणीत मार्ग (मत) में मेरु के समान अडिग
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org