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४. रत्नचूड की आत्मकथा
देव-पुरुष ने अपनी सुन्दर स्त्री के समक्ष विमल और मुझे सुनाते हुए अपनी आत्मकथा प्रारम्भ की । देव-पुरुष ने कहारत्नचूड का परिचय
शरद् ऋतु के शांत चन्द्र के किरण-समूह जैसा श्वेतरजोमय वैताढ्य नामक एक पर्वत है । इस पर्वत की उत्तर और दक्षिण दो क्षेणियाँ हैं। उत्तर क्षेणी में ६० विद्याधरों के और दक्षिण क्षेणी में ५० विद्याधरों के नगर बसे हुए हैं। वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी में गगनशेखर नामक एक नगर है। इस नगर का राजा मणिप्रभ और उसकी रानी कनकशिखा है। इनके रत्नशेखर पुत्र और रत्नशिखा एवं मरिणशिखा नामक दो पुत्रियाँ हैं । रत्नशिखा का विवाह मेघनाद विद्याधर के साथ और मणिशिखा का अमितप्रभ विद्याधर के साथ हुआ है । मैं रत्नशिखा और मेघनाद का पुत्र हूँ। मेरा नाम रत्नचूड है । मरिणशिखा और अमितप्रभ के दो पुत्र हैं जिनके नाम अचल और चपल हैं। अचल और चपल मेरी मौसी के पुत्र होने से मेरे भाई हुए । मेरे मामा रत्नशेखर का विवाह रतिकान्ता से हुआ, जिससे उन्हें एक पुत्री हुई जिसका नाम उन्होंने आम्रमंजरी रखा । वही आम्रमञ्जरी अभी आपके समक्ष इस लतामण्डप में बैठी हुई है । मेरी मौसी के पुत्र अचल, चपल, मैं और आम्रमञ्जरी, हम सब बचपन में एक साथ ही क्रीडा करते थे। क्रमशः हम सब कुमारावस्था को प्राप्त हुए और कुलक्रम से चली आ रही विद्याधरों की सारी विद्याओं का हमने अभ्यास किया। रत्नचूड को धर्मप्राप्ति
इधर मेरे मामा रत्नशेखर की बचपन से ही चन्दन नामक सिद्धपुत्र के साथ मित्रता थी। यह सिद्धपुत्र सर्वज्ञ प्ररूपित आगम-शास्त्रों में अत्यन्त निपुण था और निमित्तशास्त्र, ज्योतिष, मंत्र-तन्त्र तथा मनुष्यों के लक्षणों को समझने में भी बहुत कुशल था। उसकी संगति से मेरे मामा रत्नशेखर भी सर्वज्ञभाषित धर्म के अनुरागी और दृढ़ भक्त बने । मेरे मामा ने इस श्रेष्ठ जैन-धर्म का ज्ञान मेरे मातापिता (रत्नशिखा, मेघनाद) और मुझे भी करवाया ।* एक समय सिद्धपुत्र चन्दन
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