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उपमिति भव-प्रपंच कथा
५. तपोयोग - प्रकर्ष ! युवराज के पास बैठे दस मनुष्यों में से पाँचवें का नाम तपोयोग है । यह अत्यन्त पवित्र और विशुद्ध है । इसके पास इसके अंगभूत १२ मनुष्य दिखाई देते हैं, इनके प्रभाव से नरोत्तम तपोयोग जैनपुर में क्या-क्या चमत्कार दिखा सकता है, वह भी संक्षेप में बताता हू । अनशन नामक पुरुष प्राणियों से सब प्रकार के आहार का त्याग करवाकर निःस्पृह (इच्छा, आकांक्षा रहित ) बना देता है । न्यूनोदर पुरुष भूख से कम भोजन करवाकर स्वास्थ्य अच्छा रखता है और वीर्य की वृद्धि करता है । वृत्ति-संक्षेप के प्रादेश से मुनिगण अनेक प्रकार के श्रेष्ठ अभिग्रह धारण करते हैं, इसके कारण जीवन नियमित होने से उनमें सुख शांति की वृद्धि होती है । रसत्याग पुरुष के आदेश से मोह और विषयाभिलाषा के उद्रेक का कारण होने से मुनिगरण रस वाले विकृतिकारक पदार्थों का त्याग करते हैं । कायक्लेश के निर्देश से मुनिगरण कायिक कष्ट सहन करने का अभ्यास कर कर्मों की निर्जरा की ओर प्रवृत्त होते हैं । संलीनता के निर्देशानुसार मुनिगरण अंगोपांगों का उपयोग (विवेक, सावधानी) पूर्वक करते हैं । अनावश्यक हलन चलन न कर अपने आचार को पवित्र रखते हैं तथा इन्द्रिय, कषाय और योगों का संगोपन करते हैं । इसी से प्रेरित होकर विविक्तचर्या (एकान्त वास करते हैं । (ये छ: प्रकार के पुरुष समस्त बाह्य विषयों पर विजय प्राप्त करवाते हैं, जिससे त्याग भाव को अंगीकार करने का सीधा सरल और लाभकारी मार्ग प्रशस्त होता है ।) [१५८ - १६३ ]
इस तपोयोग के साथ अन्य छ: अंगभूत पुरुष भी हैं जो अन्तरंग साम्राज्य को विस्तृत करते हैं और अत्यन्त लाभकारी हैं । उनमें प्रथम पुरुष प्रायश्चित्त है । यह प्रायश्चित्त दस प्रकार का है :- (१. प्रालोचना, २ . प्रतिक्रमण, ३. मिश्र, ४. विवेक, ५. कायोत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ६. अनवस्थाप्य, १०. पारांचिक 1) दूसरा पुरुष विनय नामक है जो (अनाशातना, भक्ति, बहुमान, गुरण-प्रशंसा) चार प्रकार का है । तीसरा पुरुष वैय्यावृत्त्य नामक है जो (प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, रोगी, नवदीक्षित, स्वधर्मीबन्धु, कुल, गरण और संघ) दस प्रकार का है । चौथे पुरुष का नाम स्वाध्याय है जो (वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा) पाँच प्रकार का है । पाँचवां पुरुष जो दिखाई देता है, उसका नाम ध्यान है । उसके धर्मध्यान और शुक्लध्यान दो भेद हैं । अन्तिम पुरुष का नाम उत्सर्ग है, यह श्रेष्ठ मुनिपुंगवों को गण, उपधि, शरीर तथा आहार पर नि:स्पृह ( स्पृहा रहित ) बनाता है | योग्य समय आने पर प्रेरित कर बाह्य वस्तुनों का सर्वथा त्याग करवाता है । कर्म-क्षय के लिये बार-बार एकाग्र ध्यान से कायोत्सर्ग करने का भी इसी में समावेश होता है ।) छः बाह्य और छः अन्तरंग रक्षकों के सम्बन्ध में संक्षिप्त वर्णन मैंने सुनाया, वैसे विस्तृत वर्णन करने लगू तो उसका कोई अन्त ही नहीं ।
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[१६४-१६७]
६. संयम - प्रकर्ष ! श्रमण-धर्म युवराज के पास बैठे हुए दस मनुष्यों में से छठा मनोहारी श्रेष्ठ पुरुष संसार में संयम के नाम से प्रसिद्ध है और मुनियों का
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