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प्रस्ताव ४ : षट् दर्शनों के निर्वृत्ति-मार्ग
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२. वैशेषिक दर्शन
वत्स प्रकर्ष ! वैशेषिकों ने निर्वृत्ति-मार्ग की कल्पना में ६ पदार्थ माने हैं। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय । ये इन ६ पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्ष (निर्वृत्ति) प्राप्ति होना मानते हैं ।
- इन छः पदार्थों के विभिन्न भेद हैं। इन पदार्थों में द्रव्य ६ प्रकार का है :-पृथ्वी, अप्, तेजस्, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन ।
गुण २५ प्रकार के हैं :-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श. संख्या, परिमारण, पृथकत्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, वेग और शब्द ।।
कर्म ५ प्रकार का है :-उत्क्षेपण, अवक्षेपण, प्रचारण, आकुचन और गमन ।
सामान्य दो प्रकार का है :-पर और अपर । सत्ता लक्षण वाला परसामान्य और द्रव्यत्व आदि वाला अपर-सामान्य ।
विशेष-अरण, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन आदि नित्यद्रव्य में रहने वाले अन्त्य को विशेष कहते हैं।
समवाय-अयुतसिद्ध अर्थात् तन्तुस्थित पट के समान अन्य प्राश्रय में नहीं रहने वाले ऐसे आधार आधेय भाव वाले दो पदार्थों के सम्बन्ध के हेतु इह प्रत्यय को समवाय कहते हैं।
इस दर्शन में प्रत्यक्ष और अनुमान (लंगिक दो प्रमाण माने जाते हैं। यह वैशेषिक दर्शन का सामान्य अर्थ (परिचय) है । ३. सांख्य दर्शन
प्रकर्ष ! सांख्यों ने अपनी कल्पना से २५ तत्त्वों के यथार्थ ज्ञान से मोक्ष (निर्वृत्ति) का मार्ग स्वीकार किया है । ये २५ तत्त्व निम्नलिखित हैं :- सत्व, रजस
और तमस् तीन प्रकार के गुरण हैं। प्रसन्नता, लघुता, स्नेह, अनासक्ति, अद्वेष और प्रीति ये सत्वगुण के कार्य हैं। ताप, शोक, भेद, स्तम्भ, उद्वेग और चलचित्तता ये रजोगुण के कार्य हैं । मरण, सादन, बीभत्स, दैन्य, गौरव (गर्व) आदि तमोगुण के चिह्न हैं । इन तीनों गुणों की साम्यावस्था अर्थात् समान प्रमाण में होने की अवस्था को प्रकृति कहते हैं । इसी का दूसरा नाम प्रधान भी है। प्रकृति से महान् अर्थात् बुद्धि उत्पन्न होती है । * बुद्धि से अहंकार उत्पन्न होता है। अहंकार से ११ इन्द्रियाँ और ५ तन्मात्रा मिलाकर १६ तत्त्व उत्पन्न होते हैं । वे इस प्रकार है :-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्ष और कान ये पांच बुद्धि इन्द्रियाँ । वचन, हाथ, पैर, गुदा और योनि
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