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________________ ६०४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा - ४. प्रयोजन :-जिसके लिये अर्थात् जिस अभिलाषा से प्रवृत्ति की जाय वह प्रयोजन कहलाता है। ५. दृष्टान्त :-जिसके सम्बन्ध में वादी और प्रतिवादी में विवाद नहीं हो सकता, उसे दृष्टान्त कहते हैं। ६. सिद्धान्त :--चार प्रकार का है : -- सर्वतन्त्र सिद्धान्त, प्रतितन्त्र सिद्धान्त अधिकरण सिद्धान्त और अभ्युपगम सिद्धान्त । ७. अवयव :-पांच प्रकार का है : -प्रतिज्ञा. हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन । ८. तर्क :-संशय को दूर करने के लिए अन्वय धर्म का अन्वेषण करना तर्क है, जैसे यह स्थाणु होना चाहिये या पुरुष ? ६. निर्णय :-संशय और तर्क के पश्चात् * जो निश्चय होता है उसे निर्णय कहते हैं, जैसे यह पुरुष ही है अथवा स्थाणु ही है। १०. वाद :–तीन प्रकार का है : - वाद, जल्प और वितण्डा । वादगुरु और शिष्य के मध्य में पक्ष और प्रतिपक्ष को स्वीकार कर अभ्यास के लिए जो कथा कहने में आती है वह वाद कथा कहलाती है। ११. जल्प :-केवल विजय प्राप्त करने की इच्छा से छल, जाति, निग्रह-स्थान प्रादि दूषणों को पारोपित करने वाली कथा जल्प कहलाती है। १२. वितण्डा :-इसी जल्प कथा में प्रतिपक्ष की अनुपस्थिति में स्वपक्ष का स्थापित करना वितण्डा कथा कहलाती है। १३. हेत्वाभास :-हेतु न होने पर भी जो हेतु जैसा दिखाई दे उसे हेत्वाभास कहते हैं। इसके अनैकान्तिक आदि भेद हैं। १४. छल :-नव कम्बल वाला देवदत्त इत्यादि वाकप्रपञ्च को छल कहते हैं। १५. जाति :-दूषणाभास को जाति कहते है। १६. निग्रस्थान :-विपक्षी जहाँ वाद करते हुए लड़खड़ा जाय उसे निग्रहस्थान कहते हैं । निग्रह अर्थात् पराजय का; स्थान अर्थात् कारण निग्रहस्थान । इस निग्रह स्थान के बाईस भेद हैं :-१. प्रतिज्ञा हानि, २. प्रतिज्ञान्तर, ३. प्रतिज्ञाविरोध, ४. प्रतिज्ञा संन्यास, ५. हेत्वन्तर, ६. अर्थान्तर, ७. निरर्थक, ८. अविज्ञातार्थ, है. अपार्थक, १०. अप्राप्तकाल, ११. न्यून, १२. अधिक, १३. पुनरुक्त, १४. अननुभाषण, १५. अप्रतिज्ञान, १६. अप्रतिभा, १७. कथाविक्षेप, १८. मतानुज्ञा, १६. पर्यनुयोज्योपेक्षण, २०. निरनुयोज्यानुयोग, २१. अपसिद्धान्त और २२. हेत्वाभास । इस प्रकार नैयायिक दर्शन सम्मत प्रमाण आदि सोलह पदार्थों का यह संक्षिप्त विवेचन है। * पृष्ठ ४३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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