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प्रस्ताव ४ : राक्षसी दौर और निर्वृत्ति
LEE विमर्श - भाई ! इस भवचक्र में सर्वदा रहने वाले प्राणियों को इस संसार से कभी निर्वेद नहीं होता, इसका भी कारण सुन । जैसा कि मैं पहले प्रतिपादित कर चुका हूँ कि महामाह आदि अन्तरंग राजा अपनी महान् शक्ति से सम्पूर्ण भवचक्र के लोगों को अपने वश में रखते हैं। सम्पूर्ण विश्व को जनमोहन (अपने वशवर्ती) करने में इनका कौशल अभूतपूर्व है। इनके वशीभूत यहाँ के प्राणी निरन्तर यहाँ रहकर दुःख सहते हैं फिर भी कभी इससे घबराते नहीं। ये महामोहादि प्रबल तस्कर हैं, धूर्त हैं, दु:खदायी शत्रु हैं, तथापि आश्चर्य की बात तो यह है कि मोहित चित्त वाले भवचक्र निवासी तो इन्हें अपने सच्चे मित्र, हितेच्छ्र, प्रेमी और सुख के कारणभूत मानते हैं । वत्स ! मोह द्वारा चित्त को विपरीत दिशा में ले जाने के कारण यह नगर दुःखों से परिपूर्ण होने पर भी यहाँ के निवासी इसे सुख-समुद्र जैसा मानते हैं और कभी दुःखों से छटने की चिन्ता नहीं करते । वे यहीं पड़े रहकर महामोह आदि को अपना बन्धु मानते हुए सन्तुष्ट होकर प्रसन्न रहते हैं। यदि कोई विद्वान् पुरुष कभी इन्हें इस भवचक्र के दुःखों से मुक्त होने का परामर्श देता है, मार्ग बताता है तो उसे वे अपना सुख लूटने वाला ठग समझते हैं और उसका उपकार मानने के बदले उस पर रुष्ट होते हैं। इतना ही नहीं, वे यहाँ रहकर निरन्तर ऐसेऐसे कार्य करते हैं जिसके परिणामस्वरूप पाप कर्म का उपार्जन कर वे इस भवचक्र में अपना निवास अधिक स्थिर और दीर्घकालीन बना लेते हैं । ये महामोह आदि शत्रुओं की गोद में बैठे हुए हैं और इन्हें यहीं पड़ा रखने के लिये महामोहादि अपनी समस्त शक्ति का प्रयोग कर रहे हैं तथापि ये बेचारे इस वास्तविकता को न तो जानते हैं और न ही कभी जानने का प्रयत्न ही करते हैं। इतना ही नहीं शब्द,रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि इन्द्रियों के भोग जो तुच्छ हैं, दुःख से आछन्न हैं, फिर भी वे इन्हें अमृतोपम मानते हैं और इन्हीं में सुखानुभव करते हैं । वत्स ! जब तक इन प्राणियों पर महामोह आदि राजाओं का ऐसा वर्चस्व रहेगा तब तक इन्हें इस संसार से कभी भी निर्वेद नहीं होगा। [१०-२१]
प्रकर्ष-मामा ! इस भवचक्र के लोग जब स्वयं ही इस प्रकार बेवकूफ, पागल और उन्मत्त जैसे दुरात्मा बन रहे हैं तब हम उनके विषय में चाहे जितनी चिन्ता करें या उनके हित की बात सोचें तो वह सब व्यर्थ ही है। [२२]
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