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________________ प्रस्ताव ४ : राक्षसी दौर और निर्वृत्ति ५६७ था कि निश्चय से देखा जाय तो पुरुषार्थ की आवश्यकता ही नहीं है, परन्तु व्यवहार में प्रयत्न (पुरुषार्थ) करने से कौन रोकता है ? प्राणी को अपने अपराधरूपी मल को शुभ अनुष्ठानरूपी निर्मल जल से बार-बार धोते रहना चाहिये । इस विषय में प्राणी प्रवृत्ति करता ही रहता है क्योंकि पुरुषार्थ करते समय प्राणी यह नहीं जानता कि भविष्य में अमुक कार्य का परिणाम क्या होगा ? इसीलिये व्यवहार में वह छोड़ने योग्य विषयों का त्याग करता है और आदरने योग्य विषयों को ग्रहण करता है। क्योंकि, वह सोचता है कि यदि वह प्रवृत्ति (प्रयास) नहीं करेगा तब भी कर्मपरिणाम तो प्रवृत्त होगा ही ; बल्कि कर्मपरिणाम, कालपरिणति आदि कारण-सामग्री को प्राप्त कर वह वैताल की भांति अधिक वेग से प्रवृत्त होगा । पुनः वह सोचता है कि मनुष्य अकर्मण्य तो रह नहीं सकता । वास्तव में तो वही मुख्य कर्ता है, क्योंकि कर्मपरिणाम प्रादि की प्रवृत्ति का उपकरण (साधन) तो वह स्वयं ही है। अतः हाथ बांधकर, पैर फैलाकर बैठे रहना तो किसी भी प्राणी के लिये श्रेयस्कर नहीं है। कारण यह है कि व्यवहार से प्राणी अपने हित-अहित को प्रवृत्त कर सकता है या रोक सकता है । अर्थात् यह कहा जाता है कि प्राणी में हित को अपनाने और अहित को रोकने की शक्ति है। * निश्चय से भी जब समग्र कारण-समूह एकत्रित होता है तभी अमुक कार्य पूर्णतया परिणाम रूप में परिवर्तित होता है । यदि 'प्राणी विचारपूर्वक कोई कार्य करता है, फिर भी उसका परिणाम विपरीत आता है, तो उसे बीच के साधनों के सम्बन्ध में हर्ष या शोक नहीं करना चाहिये । उसे निश्चय मत से यह समझ लेना चाहिये कि ऐसा परिणाम तो पाने ही वाला था, यह घटना ऐसे ही घटने वाली थी, यह समझकर उसे मध्यस्थभाव धारण कर लेना चाहिये। उसे कभी यह नहीं सोचना चाहिये कि मैंने ऐसा किया होता तो ऐसा परिणाम नहीं भुगतना पड़ता, क्योंकि जो अवश्यम्भावी है उस परिणाम को अन्य साधनों के द्वारा परिवर्तित नहीं किया जा सकता। निश्चय दृष्टि से तो इस संसार में घटित होने वाली सभी अन्तरंग और बाह्य कार्य-पर्याय अमुक निर्णीत कारण-सामग्री को प्राप्त कर सदा के लिये निर्मित हो चुकी होती हैं, जिन्हें अनन्त केवल ज्ञानी सर्वज्ञ जोव अपने ज्ञान से जानते हैं और उसी के अनुसार कर्म-परिणाम अवश्य घटित होते रहते हैं। ये कार्य-पर्यायें जिस परिपाटी (अनुक्रम) से गठित होती हैं और जिन कारणों से प्रकट होने वाली हैं, उसी क्रम से और उन्हीं कारणों से वे प्रकट भी होती हैं. इसमें तनिक भी परिवर्तन या आगे-पीछे नहीं हो सकता। अत: भूतकाल में जो कुछ ह' गया है, उसके विषय में चिन्ता करना यह मोह राजा का विलास मात्र है। व्यवहार में भी अपने अहित को दूर करने और हित साधन में उद्यत विचारशील पुरुष को औषधि, तन्त्र-मन्त्र, रसायन, दण्डनीति आदि सम्पूर्ण साधन शुभ परिणाम प्राप्त करवाने में सक्षम न हो तो उनका आदर (स्वीकार) नहीं करना चाहिये, अपितु असमर्थ साधनों के स्थान पर किसी एक ऐसे साधन को ढूढ निकालना चाहिये जो निरपवाद सम्पूर्ण * पृष्ठ ४३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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