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प्रेरक को विशिष्टता
प्रकर्ष - मामा ! आपने तो और शंका खड़ी कर दी । आपने इन सप्त राक्षसनियों के प्रवर्तक पापोदय, असाता, नामराजा आदि बताये थे तथा भिन्न-भिन्न बाह्य कारण भी बताये थे, किन्तु अभी आपने इनको प्रेरित करने वाले कर्मपरिणाम, कालपरिणति आदि अन्य कारणों को बतलाया । आपके कथन में यह परिवर्तन कैसे हुआ ? मेरी तो समझ में कुछ भी नहीं आया ।
उपमिति भव-प्रपंच कथा
विमर्श - भाई प्रकर्ष ! वास्तव में इसमें कोई परिवर्तन नहीं है । मैंने पहले तुम्हें इन सप्त राक्षसनियों को प्रेरित करने वाले आन्तरिक और बाह्य कारण बताये थे वे तो प्रत्येक के विशेष काररण थे और प्रकट प्रेरणा मुख्यत: इन्हें उन्हीं कारणों से मिलती है । किन्तु, परमार्थ दृष्टि से विचार करने पर तुम्हारी समझ में यह बात आ जायगी कि कर्मपरिणाम, कालपरिणति, स्वभाव, लोक-स्थिति और भवितव्यता इन पांचों कारणों के एकत्रित हुए बिना संसार में पलक झपकने जैसा तुच्छतम कार्य भी होना सम्भव नहीं है ।
निवारण का उपाय करे या नहीं ?
प्रकर्ष - मामा ! इसका अर्थ तो यह हुआ कि ये पिशाचिन किसी भो व्यक्ति या उसके सम्बन्धी पर प्रहार / हमला कर रही हो या करने की तैयारी में हो तो उससे बचने का कोई उपाय व्यक्ति को करना ही नहीं चाहिये ? तब क्या जरा, व्याधि । मृत्यु आदि के पास आने पर वैद्य को बुलाना, श्रौषधि सेवन, मन्त्र- यन्त्रतन्त्र, रसायन सेवन, अथवा साम दाम दण्ड भेद नीति से दुर्भगता, दरिद्रता, व्याधि आदि को रोकने का प्रयत्न ही नहीं करना चाहिये ? क्या ऐसे प्रसंग पर हाथ-पांव बांधकर निष्क्रिय बने बैठा रहना ही श्रेयस्कर है ? अमुक कार्य करने योग्य है या त्याज्य है. यह जानने के पश्चात् भी क्या प्राणी को निष्क्रिय होकर कुछ भी नहीं करना चाहिये ? अर्थात् क्या वह ऐसा वीर्यहीन नपुंसक है ? क्या वह अबला स्त्री है ? बेकार है ? क्या अपनी इच्छानुसार कार्य का त्याग या ग्रहण करने की शक्ति से रहित है ? यदि ऐसा ही है तब तो यह प्रत्यक्षतः ग्रनुचित है, अर्थात् किसी भी प्रकार उचित नहीं लगता क्योंकि, हम तो प्रति-दिन देखते हैं कि लोग अपने हितकारी कार्य को करते हैं और अहितकारी का त्याग करते हैं । इस प्रयत्न के पश्चात् वे अपनी हितकारी परिस्थिति को प्राप्त करते हैं और अहितकारी परिस्थिति को दूर करने में समर्थ होते हैं । प्रयत्न पूर्वक निश्चित परिणाम प्राप्त करते हुए प्राणी सर्वत्र दिखाई देते हैं ।
व्यवहार - निश्चय : अवश्यंभावीभाव : परिपाटी
विमर्श - भाई ! थोड़ा धैर्य धारण कर, अधिक उतावला मत बन । मेरे कथन में रहे हुए गूढ अर्थ पर तू ठीक से विचारकर । मैंने तुझे प्रारम्भ में ही कहा
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