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________________ ५६४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा अभाव आदि भी स्वयं ही आ जाते हैं। भवचक्र नगर में विचरण करती हुई जब यह प्राणियों के सम्पर्क में आती है तब उन्हें आनन्दरस से परिप्लावित, सुखो, आदरणीय और सर्व प्राणियों को अपने प्रेमाकर्षण से मुग्ध करने वाला जनवल्लभ बना देती है, अर्थात् सर्व प्रकार से यह प्राणी के सौभाग्य को प्रस्फुटित करती है। वत्स ! दौर्भाग्य और सौभाग्य में स्वभाव से ही शत्रुता है, अतः जैसे हथिनी वृक्ष, लता आदि को मल से ही उखाड़ फेंकती है वैसे ही यह दुर्भाग्यता भी सौभाग्यता को जड़ मल से ही उखेड़ देती है। बेचारे जिन प्राणियों में से जब दुर्भगता इस सौभाग्यता को भगा कर अधिकार कर लेती है तब वे लोगों में प्रकृति (स्वभाव) से ही इतने अप्रय हो जाते हैं कि अपने स्वामी को भी अच्छे नहीं लगते । स्वामो को तो उस पर अप्रीति हो ही जाती है, अपितु स्वयं उसकी पत्नी भी उसे धिक्कारती है, बच्चे कहना नहीं मानते, सगे-सम्बन्धी मिलना बन्द कर देते हैं। जिन्हें अपना समझा जाता है उनका प्रेम भी जब प्राणी को नहीं मिलता तब अन्य से तो पादर मिलने का प्रश्न ही कहाँ ? उसके सगे भाई भी उससे नहीं बोलते। ऐसी अवस्था में जब वह कोई भी कार्य करता है तब उसका दुर्भाग्य अनवरत उससे दो कदम आगे रहता है । शत्रु उस पर विजय प्राप्त करते हैं, अपने अन्तरंग मित्र उसके शत्रु' बन जाते हैं, मित्र और सम्बन्धी उसे छोड़ जाते हैं और बेचारा प्राणी निन्दित होकर मनुष्यता को शापित करता हुआ, जीवन को बोझ समझ कर क्लेश पूर्ण जीवन व्यतीत करता है । इस प्रकार दुर्भगता प्राणी के हाल-बेहाल कर देती है। भाई प्रकर्ष ! इस सातवीं और अन्तिम पिशाचिन दौर्भाग्यता का जिसका पहले मैंने नाम ही बताया था उसका संक्षिप्त विवरण भी तुम्हें कह सुनाया। [२५४-२६१] भाई प्रकर्ष ! मैंने तुम्हें जरा, व्याधि, मरण, दुष्टता, कुरूपता, दरिद्रता और दुर्भगता के बारे में अनुक्रम से सम्पूर्ण विवरण सुना दिया है । प्रत्येक के प्रेरणा करने वाले, शक्ति और परिवार का भी वर्णन किया । वे किस-किस को किस प्रकार की पीड़ा देती हैं यह भी अनुक्रम से बता दिया है। प्रत्येक का शत्रु कौन है, उसका वे कैसे नाश करती हैं और उसके साथ लड़कर लोगों को पीड़ित करने के कार्य में वे भवचक्र नगर में किस प्रकार अपने आपको प्रयुक्त करती हैं, यह सब विवरण तुम्हे संक्षेप में किन्तु विगतवार सुना दिया है । [२६२-२६४] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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