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________________ ५८२ उपमिति-भव-प्रपंच-कथा गिनाई नहीं जा सकती। हे वत्स ! इस प्रकार तेरे समक्ष पशुसंस्थान उप-नगर का सक्षिप्त में वर्णन किया, अब मैं पापीपिंजर का वर्णन करता हूँ। [१०१-१०४] ४. पापीपिंजर चौथा उप-नगर पापीपिंजर है। महा पाप के जोर से जो पापी प्राणी इस नगर में रहते हैं, उनके दुःख का तो जब तक वे यहाँ रहते हैं तब तक इस महा दुःख का कोई विच्छेद अन्त होता हो ऐसा सम्भव नहीं है । मोह राजा के सभामण्डप में बैठे तीसरे वेदनीय नामक राजा का मैंने जो पहले वर्णन किया था वह ता तुझे स्मरण ही होगा। उसके एक अनुचर असाता पर प्रसन्न होकर महामोह राजा ने इस पापोजिर नगर का राज्य जमींदारी के रूप में सौंप रखा है। यह असाता परमाधामी नामक अपने अनुचरों द्वारा यहाँ रहने वाले लोगों को अनेक प्रकार से कदर्थना करवाता है । ये परमाधामो प्राणी को कैसा-कैसा त्रास देते हैं, इसका वर्णन करना भी दुःशक्य है। परमाधामी यहाँ के निवासियों को पिघला हुया तांबा पिलाते हैं, उनके शरीर के सैकड़ों टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं, उन्हीं का मांस उन्हें खिलाते हैं, धधकती अग्नि में उन्हें जलाते है, उन्हें वज्र सदृश कांटेदार शाल्मलि वृक्ष पर चढ़ाते हैं. खून से भरी वैतरणी नदो तैरकर पार करवाते हैं, करुणाहीन होकर प्रसिपत्र वन में प्राणियों को चला कर उनके अंग छेदते हैं, भाले-बरछी तोमर मारते हैं, लोह के नाराच बाण मारते हैं, तलवार और गदाओं से मारते हैं. कुम्भीपाक में पकाते हैं, प्रारी से चीरते हैं और कादम्बरी अटवी की गरम-गरम बालुका में चने की भांति भूनते हैं । (अत्यन्त अधम परमाधामो असुर नारकीय जीवों को इतना अधिक त्रास देते हैं कि उनको सुनकर भी मन में अत्यन्त ग्लानि होती है। नारकीय जीवों को सताने में हो इन असुरों को प्रानन्द प्राता है, वे इस कार्य को अच्छा मानते हैं।) [१०५-११२] पापीपिंजर उप-नगर में सात मोहल्ले हैं। इनमें से पहले के तीन मोहल्लों में परमाधामी देव (असुर) पूर्व-वरिणत दुःख देते हैं । अन्य तीन मोहल्लों के निवासी परस्पर ही एक दूसरे को दुःख देते हैं, कदर्थना करते हैं, मारते हैं, कूटते हैं और एक दूसरे से लड़ाई-झगड़ा करते रहते हैं। इस प्रकार चौथे, पांचवें और छठे विभाग (नरक) के निवासी परस्पर पीड़ा पहुँचाते हैं। सातवें विभाग के निवासियों को वज्र जैसे तीक्ष्ण कांटे चुभाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त नरक के प्राणी भूख और प्यास से तड़फते हैं । वहाँ ठण्ड इतनी अधिक है कि ठिठुर कर लकड़ी के ठूठ जैसे हो जाते हैं । वेदना से घबरा कर पागल जैसे हो जाते हैं । पल में प्रवाही और पल में ठोस बन जाते हैं। क्षण भर में शरीर से अलग और दूसरे ही क्षण शरीर से जुड़ जाते हैं । (उनके शरीर पारे जैसे पदार्थ के होने से वे इन सब स्थितियों को सह लेते हैं, फिर भी मरते नहीं। वे वैक्रिय शरीरधारी होते हैं, अतः अनेक प्रकार की विक्रिया/ - भिन्न-भिन्न रूप धारण कर सकते हैं ।) पापीपिंजर नगर के निवासियों को इतनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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