SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 622
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्ताव ४ : मकरध्वज ५०६ अधिक गुण हैं कि पिता ( महामोह) का उस पर भी अत्यधिक स्नेह है और उसे देखकर महामोह के नेत्र हर्षित और मन निश्चिन्त होता है । यद्यपि जन्म से यह अपने बड़े भाई रागकेसरी से छोटा है परन्तु शक्ति में उससे भी अधिक बलवान है, क्योंकि रागकेसरी को देखकर किसी को डर नहीं लगता परन्तु द्व ेषगजेन्द्र को देखते ही लोग भय से थर-थर कांपने लगते हैं । जब तक यह महा पराक्रमी द्व ेषगजेन्द्र चित्तअटवी में घूमता रहता है तब तक बहिरंग लोगों में प्रीतिसंगम ( प्रेम सम्बन्ध ) रह ही कैसे सकता है ? जो लोग एक दूसरे के घनिष्ठ मित्र होते हैं और जिनके हृदय परस्पर स्नेह से बंधे होते हैं, उन्हें यह भाई अपने जाति-स्वभाव से ही उनके दिलों में भेद उत्पन्न कर अलग-अलग कर देता है और उनमें शत्रुता पैदा कर देता है । जबजब यह द्वेषगजेन्द्र चित्तटवी में चलता हुआ हलचल करता रहता है तब-तब बहिरंग प्राणी अत्यधिक पीड़ित एव दुःखी हो जाते हैं और परस्पर शत्रुता में इतने बद्ध हो जाते हैं कि भयंकर वेदना वाली नरक में पड़ते हैं तथा वहाँ भी आपसी वैर एवं मात्सर्य में आबद्ध रहते हैं अर्थात् वैर को नहीं भूलते। भैया प्रकर्ष ! इस गजेन्द्र का जैसा कर्णकटु नाम है वैसा ही यह भयंकर भी है और यथा नाम तथा गुण वाला है । जैसे गंधहस्ती की गन्ध से अन्य हाथी भाग जाते हैं वैसे ही द्वेषगजेन्द्र की गंध से विवेक रूपी हाथो दूर से ही भाग जाते हैं । इसकी स्त्री अविवेकिता अभी यहाँ दृष्टिगोचर नहीं हो रही है, परन्तु उसके बारे में तो शोक ने तुझे पहिले ही बता दिया था जो तुझे स्मरण ही होगा । [३२६-३३५] १४. मकरध्वज [चित्तवृत्ति प्रटवी के मण्डप में सिंहासन पर बैठे हुए महामोह राजा और उनके परिवार का वर्णन सुनकर प्रकर्ष बहुत प्रसन्न हुआ । उस समय महामोह महाराजा के पीछे बैठे हुए एक अद्भुत स्वरूप वाले पुरुष को देखकर प्रकर्ष की जिज्ञासा जागृत हुई और उसने अपने मामा से पूछा - ] मकरध्वज मामा ! महाराज रागकेसरी के ठीक पीछे सिंहासन पर राजा जैसे एक व्यक्ति बैठे दिखाई दे रहे हैं, जिनके साथ तीन पुरुषों का परिवार है, जिनके शरीर का रंग लाल है, आंखें बहुत चपल हैं, विलास के चिह्न स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं, पीठ पर बाण रखने का तूणीर बंधा हुआ है, हाथ में धनुष दिखाई दे रहा है, समीप में पाँच बारा रखे हुए हैं, जिनके पास विलासमयी दीप्तीमयी लावण्यपूर्णा सुन्दर स्त्री * पृष्ठ ३६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy