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प्रस्ताव ४ : रागकेसरी और द्वेषगजेन्द्र
तत्त्वमार्गमजानन्तो, विवदन्ते परस्परम् । स्वाग्रहं नैव मुचन्ति, रुष्यन्ति हितभाषिणे ।। तत्त्व मार्ग को न जानने के कारण ये पाखण्डी परस्पर व्यर्थ में ही वादविवाद करते हैं, अपने निर्णय के आग्रह को नहीं छोड़ते और यदि कोई उनके हित के लिये सच्ची बात समझाता है तो वे उस पर रुष्ट होते हैं । [ ३०२ ]
भाई प्रकर्ष ! जगत्प्रसिद्ध मिथ्यादर्शन को प्राणवल्लभा यह कुदृष्टि हरिंग प्राणियों से ऐसे-ऐसे कार्यों को करवाती हुई विलास करती है । । ३०३ ]
१३. रागकेसरी और व्देषगजेन्द्र
विगत प्रकरण में विमर्श ने अपने भारणजे प्रकर्ष के समक्ष मोह राजा के परिवार का विस्तार से वर्णन किया जिसमें उसकी पत्नी, सेनापति तथा उसकी पत्नी के गुणों का विस्तृत वर्णन किया था । अब मोहराजा के दोनों पुत्रों का परिचय कराया जा रहा है ।
भाई प्रकर्ष ! विपर्यास नामक उच्च सिंहासन पर बैठे हुए जो दृष्टिगोचर हो रहे हैं वे मोहराजा के ज्येष्ठ पुत्र सुप्रसिद्ध रागकेसरी हैं । इन्हें राज्य गद्दी पर बिठाकर मोहराजा स्वयं राज्य की चिन्ता से मुक्त हो गये हैं और जीवन में कृतार्थ हो गये हों ऐसा जीवन बिता रहे हैं । महाराजा ने अपना सम्पूर्ण राज्य उन्हें सौंप दिया है तथापि ये विनय कुशल बनकर पिता की सर्व प्रकार की मर्यादा को विवेक एवं नीति पूर्वक निभाते हैं । पिता को सर्व प्रकार से योग्य मानते हैं और अत्यावश्यक सभी विषयों में उनका परामर्श लेते हैं । पिता भी सभी के समक्ष अपने पुत्र के गुणों की प्रशंसा करते हैं और कई बार कहते हैं कि यही मेरे राज्य का स्वामी है । पुत्र का विनय और पिता की प्रशंसा तथा स्नेह, दोनों को परस्पर स्नेह-सूत्र में बांध कर रखती है । इसी गाढ सम्बन्ध के कारण वे दोनों मिलकर सम्पूर्ण जगत को अपने वश में करने में समर्थ हैं । जब तक इस रागकेसरी राजा का प्रताप दुनिया में विद्यमान है तब तक बहिरंग लोगों को प्रात्मिक सुख की गंध भी कैसे प्राप्त हो सकती है ? हे भद्र ! संसार रूपी समुद्र के उदर में विद्यमान बाह्य पदार्थों पर बहिरंग प्राणियों की श्रतिशय प्रीति उत्पन्न करने और क्लेशमय पापानुबन्धी पुण्य से स्वयं को क्लेशमय बनाने तथा भविष्य में भी क्लेश उत्पन्न करने वाले भावों से प्राणी को दृढ़ स्नेह-बन्धन में बांधकर रखने में यह पूर्ण समर्थ है [३०४-३११]
रागकेसरी के तीन मित्र
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प्रकर्ष ! वे जो रक्त वर्ण और अति स्निग्ध शरीर वाले तीन पुरुष
*पष्ट २६७
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