SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 617
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा दुश्वेष्टा और वेश्यावृत्ति को गुण मानता है। निर्मल ज्ञान के विशुद्ध मार्ग को धूर्तों द्वारा प्रवर्तित कुमार्ग मानता है। जब कि तांत्रिक जैसे शाक्त-मतों को मोक्ष का मार्ग मानता है । वह गृहस्थाश्रम धर्म का विशेष सन्मान करता है और उसे अतुलनीय श्रेष्ठ धर्म बताता है, जब कि सर्व प्रकार के राग-द्वषादि विपरीत भावों का उच्छेदन करने वाले साधु धर्म की निन्दा करता है। इस प्रकार मिथ्या दर्शन द्वारा स्थापित विपर्यास सिंहासन के कारण ही इस लोक में प्राणी के मन में ऐसे विपरीत भाव उत्पन्न होते हैं । । २४६-२५७] मिथ्यादर्शन की महिमा भैया प्रकर्ष ! मिथ्यादर्शन के प्रभाव से अज्ञान के वशवर्ती हुए प्राणी कैसे-कैसे अन्य काम करते हैं, वह भी सुनले । जो पूर्णतया वृद्ध हो गये हैं. तरुण नारियां जिन्हें देखकर हँसी उड़ाती हैं, जिनके शरीर की चमड़ी लटक गई है, ललाट पर सल पड़ रहे हैं, अंग पर धब्बे स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं, ऐसे प्राणी भी काम-विकार से ग्रस्त रहते हैं और निरन्तर काम-भोगों की बातों में रस लेते हैं तथा वे बुढ़ापे की बात करने से भी शर्माते हैं। कोई उनसे उम्र पूछे तो वे अपने को जवानी के निकट हो बताते हैं । अनेक प्रकार के रसायनों और रंगों के उपयोग से वे अपने केश काले करते हैं मानो स्वयं के हृदय को काला बना रहे हों। शरीर पर बार-बार अनेक प्रकार के तेलों की मालिश कर उसे चिकना बनाते हैं, गाल पर लाली लगाकर उसकी शिथिलता को यत्नपूर्वक छुपाते हैं। ये मढ जवानी की अकड़ाई पूर्ण चाल चलने का नाटक करते हैं, जवानी को स्थिर रखने के लिये अनेक प्रकार के रसायनों का सेवन करते हैं, अपना मुखड़ा बार-बार शीशे में देखते हैं और शरीर की छाया को पानी में देखते हैं । इस प्रकार ये स्वयं की शरीर-शोभा को बढ़ाने वाले साधनों की प्राप्ति में अनेक प्रकार के कष्ट प्रसन्नता से सहन करते हैं । सुन्दर स्त्रियों द्वारा उन्हें तात (बाबूजी, भाईजी) आदि कह कर पुकारे जाने पर स्वयं उनके दादा जैसे होने पर भी. उनको तरफ काम-विकार की दृष्टि से देखते हैं और उनसे लिपटने को तरसते हैं । स्वयं अन्य को प्राज्ञा और प्रेरणा देने के संयोगों में होने पर भी हँसीविनोद, इशारेबाजी, छेड़खानी आदि करके दूसरों की हँसी के पात्र बनते हैं। हे भद्र ! बुढ़ापे से जर्जर शरीर से भी जब यह मिथ्यादर्शन ऐसी-ऐसी विडम्बनायें करवाता है तब गधा पच्चीसी वाली युवावस्था में तो न जाने कैसी दशा करवाता होगा? [२५८-२६७] जब यह शरीर श्लेष्म, प्रान्तड़ियां, चरबी आदि से भरा हुआ है तब भी इस पर अत्यन्त प्रासक्त चित्त होकर बेचारे प्राणी अनेक प्रकार के कष्ट प्राप्त करते हैं और निर्लज्ज होकर, धर्म के साधनों का त्याग कर अनन्त भवों में दुर्लभता से प्राप्त मनुष्य जन्म को व्यर्थ में गंवा देते हैं । ऐसे जीव का भविष्य में क्या होगा ? इसका विचार भी नहीं करते, देह-तत्त्व को नहीं पहचानते, अर्थात् शरीर और आत्म-तत्त्व के * पृष्ठ ३६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy