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________________ प्रस्ताव ४ : वेल्लहल कुमार कथा ४६५ समर्थ नहीं हो सका। ऐसो ही स्थिति इस संसारी प्राणी की है । जब वह प्राणी प्रमाद युक्त होकर तद्विलास-परायण होता है तब उसके चित्त में अनेक प्रकार के विक्षेप होते रहते हैं और तृष्णा से पीड़ित होकर विपर्यास (विपरीत) बुद्धि के वशीभूत हो जाता है तथा अविद्या से अन्धा बनकर संसार रूपी कीचड़ में प्रासक्त हो जाता है । वह अपने मन से ही कल्पना कर बैठता है कि विषय-सुखों में ही समस्त गुणों का समावेश है । उस समय यदि कोई धर्माचार्य या सर्वज्ञ रूपी सच्वा वैद्य पाकर उसे कीचड़ में फंसने से रोकता है तो यह जीव उन्हें मूर्ख और बुद्धिहीन मानता है । उस प्राणी द्वारा बांधे हुए अजीर्ण रूपी गाढ पापों के कारण उसे दुःखभोग-रूपी ज्वर आता है । ज्वराभिभूत होकर यह धर्माचार्य हायज्ञ की शिक्षा को वमन के समान त्याग देता है और प्रमाद में पड़कर उसका मन , दोषों से परिपूर्ण हो जाता है । उस समय महामोह राजा, जिसका व्यवहार सन्निपात जैसा ही है, आकर उसके मन को अपने अधीन कर लेता है। एक बार महामोह के वश में पड़ने के पश्चात् हे सुन्दरलोचने ! यह प्राणी अन्य विवेकशील प्राणियों के देखतेदेखते ही आत्मिक दृष्टि से निश्चेष्ट बन जाता है। तदनन्तर अति पापोदय के परिणाम स्वरूप विष्टा, मत्र, अंतडियाँ, चर्बी, खून, माँस रूपी कीचड़ से लथपथ वमन में लिपट कर सीधा नरक में पड़ जाता है। वहाँ फिर नरक के दलदल में लोटपोट होता हुअा हा हा कार करता है, आर्तस्वर से रोता है, चिल्लाता है और अवर्णनीय तीव्रतम दुःखों को सहन करता है । हे सुन्दरगात्र वाली बहिन ! तपोधन और शुद्ध दृष्टि वाले ज्ञानी पुरुष अपनी ज्ञान दृष्टि से इस प्राणी की उक्त चेष्टानों को देखते हैं, समयज्ञ चिकित्सक होने से उसका निदान कर जान लेते हैं कि यह प्राणी अब सन्निपात जैसे असाध्य रोग से घिर गया है और अब इसे बचाने का कोई उपाय शेष नहीं है, अत: वे ऐसे प्राणी का त्याग कर देते हैं, अर्थात् उसके प्रति उपेक्षा की दृष्टि धारण करते हैं । हे चपलनेत्रि ! इस अवस्था में जब यह प्राणी घोर संसार में डूबा हुआ होता है तब उसको अन्य कोई रक्षा कैसे कर सकता है ? [१२६-१ २j अल्पभाषिणि बहिन ! ऐसी अत्यन्त दयनीय अवस्था में भी प्राणी की प्रमादरूपी भोजन पर लोलुपता है, उस भोजन का त्याग नहीं करता. इससे दोष बढ़ते जाते हैं और वह चेतनाशून्य होता जाता है तथा अन्त में वह महामोह के सन्निपात से घिर जाता है । फलस्वरूप यह संसार-चक्र जो रोग, जरा और मरण से पाकुलव्याकुल है । इसमें अनन्त काल से बैठा हुया यह महा बलवान महामोह इस प्राणी के साथ ऐसा व्यवहार करता है कि जिससे इसके शुद्ध धर्मबन्धु इसे छोड़कर चले जाते हैं । फिर प्राणी को पूर्ण रूप से वश में कर यह महाबली महामोह अपनी शक्ति के बल पर सन्निपात के समान उससे विपरीत आचरण करवाता है । इस महामोह नरेन्द्र में इतनी अद्भुत शक्ति है कि वह प्राणी से संसार में खिलौने की भाँति * पृष्ठ ३५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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